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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

१२

 

पौ फटी और वातावरण पक्षियों की चहचहाहट से गूंज उठा, अचानक द्वारकादास की आंख खुली और क्षण भर के लिए प्रभात के उजाले को देखकर वह स्तब्ध सा बना रहा। वह पूरी रात ऊपर की मंजिल के बरामदे में अकेला शराब पीता रहा था। उसे रातभर नींद न आई थी और न जाने कैसे पिछले पहर उसकी कुछ आंख लग गयी थी। यह रात उसके लिए काली नागिन के समान थी—तड़पते बीती थी—कराहते गुजरी थी।

नीरा पारस को विदा करके अचला की पार्टी में चली गई थी और वहां से रात भर न लौटी थी। वह जानती थी कि उस रात द्वारकादास क्या अभिनय करने वाला था, इसी डर से उसने वह रात घर से बाहर बितानी उचित समझी।

आधी रात को द्वारकादास ने उसे लाने के लिए गाड़ी भिजवाई, किन्तु उसने ड्राइवर को कह दिया कि उसकी सहेलियों का रात भर का प्रोग्राम था सो वह न आ सकेगी। उसकी इस चतुराई पर उसके सीने में आग सी लग गई। उसे आशा न थी कि नीरा उससे इतनी खिंच जाएगी, ऐसा उद्दण्ड व्यवहार करेगी। ‘वह रात भर कुढ़ता रहा। तड़पता रहा और अपने को शराब में डुबोता रहा। बड़ी देर तक वह पीकर बॉल्कनी में टहलकर उसकी प्रतीक्षा करता रहा—किन्तु नीरा न आनी थी न आई। उसने अनुभव किया कि वह रात भी असाधारण लम्बी और अंधेरी हो गई थी—और अब रात तो ज्यों-त्यों करके समाप्त हो गई थी, किन्तु उसके दिल की जलन वैसी ही बनी रही थी।

विष्णु छोटी हाजिरी लेकर आया तो द्वारकादास ने उसे ही चाय का प्याला बनाकर देने का संकेत किया। चाय देकर वह लौटने लगा तो द्वारकादास ने पुकारा, ‘विष्णु।’

‘जी, हुजूर।’ वह वहीं रुक गया।

‘नीरा लौट आई क्या?’

‘नहीं सरकार! थोड़ी देर पहले उनका फोन आया था।’

‘क्या?’

‘आपको पूछ रही थीं।’

‘तो मुझे सूचना क्यों नहीं दी?’

‘आप सो रहे थे मालिक।’ विष्णु ने नम्रता से उत्तर दिया और कुछ देर खड़ा उसके पीले मुर्झाये हुए चेहरे की ओर देखता रहा। जब द्वारकादास ने कोई बात न की तो वह धीरे-धीरे पांव उठाता बाहर चला गया।

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