ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा को उसके अन्तिम शब्द अच्छे न लगे। वह पारस के प्रति ऐसा भी सोच सकता था, यह जानकर उसका भय और भी बढ़ गया। उसने द्वारकादास से पिस्तौल लेकर अलमारी में रख दिया। द्वारकादास के होंठों पर एक क्रूर मुस्कराहट दौड़ गई। सामान बांधकर उसने नौकर बुलाया और उसे बाहर ले जाने का आदेश देने लगी। द्वारकादास उस पर एक चतुर दृष्टि डालकर बाहर जाने लगे कि नीरा ने झिझकते हुए पुकारा—‘अंकल।’
‘तुमने मुझे पुकारा, क्यों?’ पलटकर द्वारकादास ने पूछा।
नीरा यों चुप हो गई मानो जो बात वह उसे कहना चाहती थी वह एकाएक भूल गई हो। द्वारकादास उसके पास लौट आया और बोला—
‘कहो, क्या बात है?’
‘मैं भी चलूं क्या आपके साथ ऑफिस तक?’ डरते-डरते मन की बात कही उसने।
‘अवश्य, पर अभी चलना होगा, समय बहुत कम है।’
नीरा की गई हुई सुध लौट आई और वह शीघ्र कपड़े बदल कर द्वारकादास के साथ गाड़ी में जा बैठी। पारस के यों एकाएक चले जाने के विचार से रास्ते पर उसका दिल धक-धक करता रहा।
दफ्तर में पारस अपना काम निबटाकर जाने के लिए तैयार बैठा था। नीरा को द्वारकादास के संग आते देखकर उसके दिल में एक कसक-सी उत्पन्न हुई। उसकी आंखों में रुके आंसू उसके मन की कथा कह रहे थे। उन आंखों में चिन्ता और निराशा का संसार आ ठहरा था—किन्तु वह जुबान द्वारा प्रकट न कर सका।
द्वारकादास तनिक एक ओर हुआ तो नीरा ने पारस के निकट आकर धीरे-धीरे भारी मन से कहा—
‘आज आप अचला की पार्टी पर जाने वाले थे ना?’
‘हां नीरू! किन्तु काम के कारण मैं न जा सकूंगा—तुम मेरी ओर से क्षमा मांग लेना।’
‘तो मैं भी न जाऊंगी।’
‘पगली। तुम जाकर मेरा अभाव पूरा कर दोगी।’
‘पार्टी का अभाव तो पूरा हो जाएगा, किन्तु जो अभाव तुम्हारे जाने से मेरे जीवन में होगा उसे कौन पूरा करेगा।’ यह कहते हुए अनायास नीरा की पलकें भीग आईं।
पारस ने उसका कंधा दबाते हुए सांत्वना दी और धीरे से बोला—
‘वह अभाव मेरी याद पूरा कर देगी—और फिर मैं सदा के लिए तो जा ही नहीं रहा, काम समाप्त होते ही लौट आऊंगा, अधिक से अधिक बस एक सप्ताह।’
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