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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

वह ठोकर द्वारकादास की कर्कश आवाज की थी जो खुले किवाड़ के पास खड़ा उससे भीतर आने की अनुमति मांग रहा था, नीरा ने घबड़ाकर पलटकर देखा। पत्रिका उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गई और पंखे की हवा में उसके पन्ने फड़फड़ाने लगे।

‘मैंने कहा…मैं भीतर आ सकता हूं?’ द्वारकादास ने वहीं खड़े-खड़े प्रश्न दोहराया।

‘ओह! अंकल…आप।’

‘घबराने की कोई बात नहीं, बिना उद्देश्य इस समय दफ्तर से नहीं आया।’

‘यह कहते द्वारकादास भीतर आ गया और सोफे पर बैठकर कड़ी दृष्टि से नीरा की ओर देखता हुआ बोला—

‘शीघ्र…पारस की यात्रा का प्रबन्ध करो।’

‘क्यों वह…?’ नीरा की घबराहट बढ़ गई।

‘वह तीन बजे की गाड़ी से मालाबार के जंगलों के ठेके पर जा रहा है—शायद उसे वहां एक सप्ताह से अधिक लग जाए।’

‘किन्तु इतनी शीघ्रता क्यों?’

‘काम ही ऐसा है मजदूरों ने हड़ताल की धमकी दी है। उन्हें ठीक रास्ते पर लाना है।’

‘इसके लिए कोई और भी जा सकता है।’

‘यह देखना मेरा काम है तुम्हारा नहीं—शीघ्र तुम उसका सामान बांध दो—मैं उसे स्टेशन पर पहुंचा दूंगा। यहां आने का उसके पास समय नहीं होगा।’

नीरा का दिल धड़कने लगा, किन्तु वह अंकल की आज्ञा का उल्लंघन न कर सकी—वह उनसे वाद-विवाद में न पड़ना चाहती थी। कांपते हुए हाथों से वह उसके कपड़े सूटकेस में डालने लगी। द्वारकादास चुप बैठा उसकी ओर देखकर सिगार पीता रहा।

कपड़ों की सूटकेस में तह लगाने के बाद नीरा ने आलमारी से पिस्तौल निकालकर भी उसके साथ रखना चाहा। उसके हाथ में पिस्तौल देखकर द्वारकादास सोफे से उठा और जाकर उसे पिस्तौल रखने के लिए रोक दिया।

‘इसे मत रखो।’ उसने हाथ से पिस्तौल छीनते हुए कहा।

‘जंगल का रास्ता है—आत्मरक्षा के लिए इसकी आवश्यकता पड़ सकती है।’ नीरा ने कांपती हुई आवाज में कहा।

‘है…किन्तु, इस स्थिति में जब आसपास सब बैरी हों तो भूल से आपत्ति का कारण भी बन सकता है, प्रायः अपना ही हथियार अपनी मृत्यु का कारण बन सकता है।’

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