ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
द्वारकादास शीघ्र नाश्ता खाकर मेज से उठ गया। पारस को यह अनुभव करके एक अचम्भा हुआ। अंकल, जो नीरा के सुख का इतना ध्यान रखते थे एकाएक उससे खिंच क्यों गये। वह इसकी गहराई तक पहुंचने में असमर्थ था, किन्तु नीरा इसे समझती थी—यह प्रतिक्रिया थी उनकी—बदले की भावना…वह उन्हें तंग करना चाहते थे—वह चुपचाप गंभीर बनी उसके वार सहती रही।
इस दिन के बाद द्वारकादास में एक विशेष परिवर्तन आ गया। वह जब भी उन दोनों को इकट्ठे देखता उसके दिल में एक ज्वाला धधक उठती। वह छिप-छिपकर उनकी प्यार की बातें सुनता और उसके सीने में आरे से चल जाते। मन ही मन वह उस अशुभ दिन को कोसता जब उसने पारस को अपने घर में स्थान देने का निर्णय किया था। वह उसके द्वारा अपनी कामना पूर्ति चाहता था, किन्तु साधन अब उसके मार्ग का शूल बन गया था—और शूल से उसका जीवन घायल हो गया था—बड़ी विचित्र विवशता थी। वह स्वयं अपने हाथों उन दोनों को ऐसे सूत्र में बांध चुका था जिसे तोड़ना अब उसके वश की बात न थी। उसे अधिक क्रोध नीरा पर था कि वह उसे प्रेम का विश्वास देकर धोखा दे गई।
एक भूल तो हुई, अब समय चतुराई से काम लेने का था जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। वास्तविकता जान लेने के बाद नीरा को अलग कर देना बुद्धिमानी न थी। इसीलिए उसने भविष्य में नीरा से कोई ऐसा व्यवहार न किया कि उसे अपना बैरी बना दे। नीरा वैसे तो स्वयं ही अपने मन के भय से सहमी हुई दब गई थी।
दोपहर का समय था और नीरा अपने कमरे में बैठी किसी अंग्रेजी पत्रिका के पन्नों को उलटती-पलटती शाम होने की प्रतीक्षा कर रही थी। आज उसको पारस के संग किसी सहेली के यहां पार्टी पर जाने का प्रोग्राम था और इसके बाद दोनों ने सिनेमा जाने का निर्णय कर रखा था। पार्टी में जाने के लिए उसने अपना अति सुन्दर जोड़ा निकाल रखा था। उसका जी चाहा कि पारस को आज शीघ्र घर आने के लिए फोन कर दे किन्तु अंकल के डर से उसको इस बात का साहस न हुआ। वह मन ही मन कल्पना के कई शीशमहल खड़े कर रही थी कि सहसा उसे यों अनुभव हुआ किसी ने अचानक एक ठोकर से उसके सब महल ढाकर चकनाचूर कर दिए हों।’
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