ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
द्वारकादास वहीं रुक गया। उसकी मुस्कराहट में अब क्रोध की झलक भी थी। उसने कठोर दृष्टि से सिर से पैर तक नीरा को निहारा और व्यंग्यात्मक स्वर में उसी के शब्द दोहराये, ‘बुढ़ापे में वह आशा मेरे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होगी, क्यों नीरू?’
नीरा के पांव तले एकाएक मानो धरती घूमने लगी। उसकी इस असाधारण दृष्टि से उसके माथे पर पसीना छूट आया और वह सिर झुकाकर रह गई। द्वारकादास ने ज़ोर से सिगार का कश खींचा और धुआं उसकी ओर फेंकते हुए अपने कमरे में चला गया। नीरा बड़ी देर तक वहीं खड़ी इस धुएं में अपने अन्धकारमय भविष्य के चित्र देखती रही।
खाने की मेज पर नीरा बड़े धीरे से ग्रास उठाकर खा रही थी। मानो अन्न न हो विष हो, उसका खाने में बिल्कुल मन न था, पारस इसके इस असाधारण ढंग को एक नाटक समझ रहा था जिसका उद्देश्य द्वारकादास के असत्य अनुमान को सत्य बनाए रखना था किन्तु, द्वारकादास ठीक प्रकार उसके अस्वस्थ मन का कारण जानता था। तीनों मौन थे किन्तु, प्रत्येक के मस्तिष्क में अलग-अलग विचारों का संघर्ष चल रहा था।
‘नीरू?’ द्वारकादास ने नम्रता से उसे सम्बोधित करते हुए मौन तोड़ा।
‘जी…।’ उसने सिर झुकाते हुए कहा।
‘कुछ दिन से तुम बहुत शिथिल और उदास-सी दिखाई देती हो।’
‘नहीं तो…।’
‘हां अकंल।’ पारस बीच में बोला—‘आज से मैंने एक निर्णय कर लिया है।’
‘क्या?’ द्वारकादास ने झट पूछा।
‘इसका मन प्रसन्न रखने के लिए हर शाम कोई मनोरंजक प्रोग्राम बनाना होगा…सिनेमा, क्लब या पार्टी।’
द्वारकादास ने कड़ी दृष्टि से उसे देखा। परास उसे यों घूरते देखकर झेंप गया, जैसे उसने यह बात कहकर बड़ी भूल की हो। द्वारकादास कुछ देर चुपचाप दोनों को देखता रहा और फिर पारस से बोला—
‘पारस सुख-सुविधा और स्वतन्त्रता मिल जाने से कर्तव्य को नहीं भूल जाना चाहिये, ये दिन ऐश और मौज के नहीं कड़े परिश्रम के हैं।’
‘आई एम सॉरी अंकल!’ पारस ने लज्जित होकर धीरे से कहा।
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