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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘झूठ—बिल्कुल झूठ।’ उसने कड़े स्वर में कहा और पारस से अलग हो गई। वह विवश भी थी और लज्जित भी। वह समझ गई कि उस रात वाला झूठ आज सामने आ गया था। क्षणभर रुककर उसने पूछा—‘यह अंकल से किसने कहा?’

‘तुम्हारे व्यवहार ने।’ पारस ने उत्तर दिया।

‘वह कैसे?’

‘दिन-रात सुस्त और उदास रहना—जी भरकर खाना न खाना—इत्यादि-इत्यादि—बस इसी से।’

‘बस-बस रहने दीजिये, आप पुरुष लोग तो बस झूठ-सच का अनुमान लगाते रहते हैं। सत्य-असत्य कुछ नहीं समझते।’

‘वह क्या है…बता दो तुम्हीं।’ पारस ने आग्रह किया।

‘अंकल इस बड़े घर में किसी बच्चे की आवाजें सुनने के लिए व्याकुल हो रहे हैं।’

‘तो…।’

‘इसीलिए वह आपका मन टटोल रहे थे कि प्रेम का कोई परिणाम निकला कि नहीं…।’ नीरा फिर पारस के निकट आकर उसके कमीज का बटन छेड़ते हुए बोली।

‘अर्थात् उनका अनुमान ठीक न था।’

‘जी—और अब आप इस अनुमान को बना ही रहने दीजिए।’

‘मैं समझा नहीं।’

‘उन्हें यह सोचकर प्रसन्न होने दीजिये—बुढ़ापे में यह आशा उनके स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होगी।’

‘तो इसके लिए मुझे झूठ कहना होगा?’

गोल-मोल अनुमान-सा-जो न सच लगे और न झूठ।’ नीरा ने चंचलता से पारस की ओर देखते हुए कहा जो उसकी बात पर अनायास हंसने लगा।

नीरा कुछ देर बाद उसे वहीं छोडकर नाश्ता तैयार करने बाहर चली गई। अभी उसने दहलीज से बाहर पांव रखे ही थे कि चौंककर वहां रुक गई। थोड़ी दूर पर द्वारकादास खिड़की का सहारा लिए खड़ा था। उसके चेहरे के भाव से वह समझ गई कि उसने उसकी सब बातें सुन ली थीं। वह एकटक उसे देखती रही। द्वारकादास ने झट सिगार सुलगाया और एक विषैली मुस्कान उस पर फेंककर लौटने लगा।

‘अंकल।’ उसे जाते देखकर नीरा ने थरथराते होंठों से पुकारा।

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