ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘तो क्या?’
‘मेरा अनुमान था केवल, देखता हूं, आजकल वह बहुत उदास और सुस्त-सी रहती है। जी भर के खाना भी नहीं खाती, इसलिए सोचा शायद।’
वह कहते-कहते रुक गया और नीरा की ओर देखने लगा जो ऊपर बालकनी पर खड़ी उन दोनों को देख रही थी। पारस खड़ा हो गया और ऊपर जाने से पहले बोला—
‘आज ही पता लगाता हूं। आपका अनुमान और अनुभव कभी झूठ नहीं हो सकता।’ यह कहते हुए उसने विशेष ढंग से नीरा की ओर देखा।
‘किन्तु ध्यान रहे, मेरा वर्णन कदापि न हो। अनुमान असत्य भी हो सकता है।’
पारस इस सत्य को जानने के लिए उत्सुक नीरा के कमरे की ओर चला गया। द्वारकादास इस रहस्य को जानकर क्रोध की अग्नि में झुलसता रह गया। जिस भेद को पाने के लिए इतने दिन से व्याकुल था, आज पारस की अनभिज्ञता से स्वयं स्पष्ट हो गया। उसे विश्वास हो गया कि नीरा ने उसे बताया था कि वह मां बनने वाली थी, वास्तव में वह गुर उसकी ढाल थी जिसका सहारा लेकर वह उस रात उससे बच निकली थी। क्रोध से दांत पीसता हुआ वह भी थोड़ी देर बाद उठकर पारस के पीछे-पीछे भीतर आ गया।
वह उसी समय अपने कमरे में पहुंचा जब पारस नीरा के कमरे में प्रवेश कर रहा था। उसके भीतर जाते ही वह झट फिर बाहर निकल आया और पर्दे के साथ लगकर उनका वार्तालाप सुनने लगा।
‘क्या कह रहे थे अंकल…?’ नीरा की आवाज आई।
‘कह रहे थे कल से तुम्हारी घुड़सवारी बंद।’
‘वह क्यों?’
‘उनका विचार है ऐसी दशा में यह अच्छा नहीं।’
‘कैसी दशा में?’ नीरा ने पूछा।
‘अच्छा जी। हमसे चोरी करो…कहो नीरा यह सच है।’ पारस ने नीरा को गले लगाते हुए प्यार से कहा।
‘क्या?’
‘अंकल का अनुमान-जानती हो बड़ो का अनुमान कभी गलत नहीं हो सकता।’
‘यह आप कौन-सा अनुमान ले बैठे हैं?’
‘लगता है तुम-तुम।’ वह कहते-कहते रुक गया।
‘हां कहिये-क्या?’
‘तुम एक नन्हें-मुन्ने की मां बनने वाली हो।’
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