ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
११
सेठ द्वारकादास बंगले के बगीचे में बैठे चाय पी रहे थे। अभी उन्होंने प्याला होंठों से लगाया ही था कि एक ठहाके की आवाज सुनकर प्याला मेज पर रखकर पलटकर देखने लगे, पिछले फाटक से नीरा और पारस हाथ में हाथ डाले भीतर आ रहे थे। उन्हें घूरकर अपनी ओर देखते हुए दोनों झेंप गए और अलग हो गये। नीरा तो यों मूर्ति-सी बनकर चुप हो गई मानो उसने किसी अजगर का खुला मुंह देख लिया हो और आगे बढ़ने का साहस न कर रही हो। वह वहीं पलटकर बैठक की ओर चली गई और पारस धीरे-धीरे पांव उठाता द्वारकादास की ओर बढ़ा। द्वारकादास ने जाती हुई नीरा को कड़ी दृष्टि से देखा और चाय पीने लगा।
‘आज सवेरे-सवेरे कहां चले गये थे?’ पारस के समीप आ जाने पर द्वारकादास ने पूछा।
समुद्र किनारे…नीरा को एक नया चाव चढ़ा है अंकल।’ पारस ने कुर्सी पर बैठकर अपने लिए चाय बनाते हुए उत्तर दिया।
‘क्या?’
‘घुड़सवारी का…एक घोड़े वाले का प्रबन्ध किया है…सीख भी लेगी और इसी बहाने कुछ व्यायाम भी हो जाएगा।’
‘ओह!’ वह निःश्वास खींचकर रह गया और फिर अपनी घबराहट छिपाने के लिए शीघ्र चाय के घूंट गले में उतारने लगा। फिर कुछ देर मौन रहने के बाद पारस की ओर बढ़ते हुए बोला, ‘ऐसी दशा में नीरा को घुड़सवारी सीखना उचित नहीं।’
‘कैसी दशा?’ पारस ने झट पूछा।
‘यह बात तुम्हें क्या बताऊं…यह तो तुम्हें स्वयं ज्ञात होनी चाहिये।’
‘मैं समझा नहीं अंकल।’ पारस ने आश्चर्य से पूछा।
‘तो क्या यह भी जनाब को बतलाना पड़ेगा कि वह मां बनने वाली है।’
‘अंकल।’ एकाएक वह आश्चर्य से मुंह खोलकर रह गया और फिर संभलते हुए बोला, ‘आपसे किसने कहा?’
उसके इस प्रश्न से द्वारकादास घबरा गया। शीघ्रता में बिना सोचे-समझे उसके मुंह से यह बात निकल गई थी और अब पछता रहा था। घबराहट से उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया था। पारस ने उसके उड़े हुए चेहरे की ओर देखकर अनुभव किया कि उसने कोई भारी भूल कर दी है। वह झेंप गया और फिर दृष्टि झुकाकर बोला—
‘आई एम सॉरी अंकल—मुझे इस बात का ज्ञान न था।’
‘मैं ही कौन-सा विश्वास से कह सकता हूं…।’ द्वारकादास ने झट बात बदली। उसे ऐसा लगा जैसे यह बात सत्य न थी।
|