ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘किन्तु मन पर बोझ रखकर।’
‘नहीं नीरू। न जाने स्त्री और धरती को क्या-क्या सहन करना पड़ता है। वह साधारण संकट से नहीं घबराती, दुःख सहने का अभ्यास हो गया है उन्हें।’
नीरा चुप हो गई और पारस के इस वाक्य पर विचार करने लगी, वह भी तो स्त्री है। क्या उसमें दुःख और संकट का सामना करने की शक्ति है? क्या वह जीवन संघर्ष से दूर रह सकती है? अपने विचारों में, अपने निश्चय में? वह मन की मन सास से अपनी तुलना करने लगी। उन्होंने जीवन का अधिक समय विधवा रहकर अपने आचार, अपने चरित्र को पवित्र रखा, समाज और संसार के कांटों के होते हुए भी उनका मन फूल के समान अलग ऊंचा उठा रहा। मां बनकर उन्होंने अपना हर कर्तव्य पालन किया। जीवन की घड़ियां पति की याद में गुजार दीं और एक वह है जिसने ऐश्वर्य की कुछ घड़ियों के लिए अपना सब कुछ दूसरे को सौंप दिया है। कुछ शारीरिक सुखों के लिए आत्मिक शांति की आहुति दे दी है, चांदी सोने की झंकार सुनने के लिए जीवन के उस संगीत को भूल गई जो नीरा को स्वयं लक्ष्मी बना देता है। सरस्वती के गुण देता है। अपनी मानसिक दुर्बलता ने उसे केवल दास बना दिया है। क्या वह सदा इन कड़ियों में जकड़ी रहेगी। क्या इस दुर्गन्ध से नहीं निकलेगी? इस घुटन से स्वतन्त्र नहीं होगी?
इन विचारों ने उसके मन को व्यग्र कर दिया, उसके दिल में एक पीड़ा-सी उठी और वह लेटे-लेटे पति के शरीर से लिपट गई, इस शायद पीड़ा को बांटने के लिए, इस कसक की तीव्रता को कम करने के लिए।
|