ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
|
4 पाठकों को प्रिय 241 पाठक हैं |
यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘क्या यह नहीं हो सकता कि हम मां जी को अपने साथ बम्बई ले जाएं?’ नीरा ने लेटे-लेटे पूछा।
‘वह न जाएंगी।’ पारस ने उत्तर दिया।
‘क्यों?’
‘वह पहले ही तुम्हारे अंकल के उपकारों तले दबी हुई हैं, और फिर वह घर बंद करके परदेश जाने को सहमत भी न होंगी।’
‘यह आपने अच्छा नहीं किया।’ कुछ क्षण रुककर नीरा ने कहा।
‘क्या?’
‘मां को यह बताकर कि सामान अंकल के पैसों से लिया गया है।’
‘और क्या कहता?’
‘अपनी कमाई के पैसों से।’
‘नहीं नीरू। मैंने मां से कभी झूठ नहीं बोला।’ पारस ने गंभीर होकर कहा।
नीरा निरुत्तर होकर चुप हो गई और सन्नाटे में उसके दिल की धड़कन सुनने लगी। कुछ देर यों ही मौन रहा और फिर नीरा ने ही बात आरंभ की।
‘एक बात सोचती हूं।’
‘क्या?’
‘क्यों न हम बम्बई छोड़कर मां जी के पास आ जाएं।’
‘यह तो संभव नहीं है नीरू। ऐसी दशा में अंकल अकेले रह जाएंगे, उन्हें बुढ़ापे में यों छोड़कर चले जाना उचित नहीं, और फिर कारोबार भी तो नहीं है। तुम्हारे अंकल की कृपा से ही आज मां इतने बड़े उत्तरदायित्व को पूरा कर सकी हैं, सो हम उन्हें धोखा नहीं दे सकते।’
‘तो क्या अब मां जी को अकेले रहना पड़ेगा।’
‘और क्या किया जा सकता है, विवशता…।’
‘वह क्या सोचेंगी?’
‘बेटे और बहू की खुशी, मैं अच्छी तरह जानता हूं।’ पारस ने वाक्य दो टुकड़े करके धीरे-धीरे कहा।
|