ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
लड़कियों का पूरा जमघट उसकी ओर देखने लगा। नीरा झेंप गई और बोली—‘भला मैं क्यों चुराकर ले जाऊंगी—इसकी मेंहदी।’
‘अपने लिए—अपने ब्याह पर जो रचाने वाला कोई न था।’
इस बात पर सब लड़कियां मिलकर एक साथ हंस पड़ीं। नीरा फिर झेंप गई और तनिक रुककर बोली—
‘अब आप जाइए…यहां लड़कियों में आपका क्या काम।’
पारस मुस्कराता हुआ बाहर चला गया, नीरा फिर रेवा का हाथ थामकर उस पर मेंहदी रचाने लगी। इस मीठी-मीठी छेड़-छाड़, इस हंसी मजाक में उसे एक विशेष आनन्द मिल रहा था। इस आनन्द को लेशमात्र भी द्वारकादास का पूरा धन नहीं खरीद सकता था।
रेवा का ब्याह हो गया। वह सदा के लिए घर से विदा हो गई। अब इस घर में केवल मां को अकेले रहना था। पारस के पिता की मृत्यु के बाद बेचारी ने पूरा जीवन इन दो बच्चों के सहारे यहीं रहकर बिताया था। बड़े हुए तो उनके ब्याह की चिन्ता हुआ। उसने सोचा था कि बेटी ब्याही जाएगी तो बहू उसके पास आकर रहेगी…किन्तु भाग्य को कुछ और ही स्वीकार था। बेटी को विदा करके वह इस अभाव को पूरा न कर सकी। वह बुढ़ापे का सहारा बनकर तो न आई बल्कि उसका सहारा भी छीनकर ले गई। उसने यह सब सहर्ष सहन कर लिया इसलिए कि वह मां थी, वह नारी थी। स्वयं अपने आपको उन पर ठूंसकर उनके जवान दिलों को किसी प्रकार की दुविधा में न डालना चाहती थी। इन्हीं के प्रताप से आज आदर और मान से बेटी का ब्याह करने योग्य हुई थी। पारस के मस्तिष्क पर कुछ ऐसे ही विचार आ-आकर टकरा रहे थे। अपने मन का बोझ हल्का करने के लिए उसने इनमें से कुछ विचार नीरा के सम्मुख भी रखे थे। आखिर वह उसकी सहचरी थी और उसकी सब चिन्ताओं की साझीदार।
रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। सामने की खुली खिड़की से नीले आकाश पर छिटकी हुई चांदनी साफ दिखाई दे रही थी किन्तु, चन्द्रमा उनकी आंखों से ओझल था। रेवा के चले जाने के बाद घर में सर्वत्र उदासी छा गई थी। पारस और नीरा की आंखों में नींद न थी। दोनों घर के विषय में बातचीत कर रहे थे—छोटी-बड़ी सभी समस्याएं थीं जिन्हें सुलझाना आवश्यक था।
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