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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

रेवा की मनोदशा का अनुमान लगा के नीरा खुश हो रही थी। वह सोच रही थी—यह रेवा जीवन की परीक्षा में बैठ रही है, वह यह नहीं जानती कि जीवन यात्रा में उसका साथी कौन है? उसका पथ-प्रदर्शक कैसा है? और एक वह थी जो अपने जीवन साथी को चुनने से पूर्व भली-भांति परख चुकी थी—और उसे इस चुनाव पर गर्व था। एकाएक फिर उसे द्वारकादास का ध्यान आया—यह चुनाव तो स्वयं उसका अपना था किन्तु, वास्तव में द्वारकादास ने उसे खरीदा था, अपने धन के बूते पर, जमाने और समाज का मुंह बंद करने के लिए, अपनी विलासिता पर पर्दा डालने के लिए, और वह भी बिकने के लिए तैयार हो गया था, इस सौदे में कोई आकर्षण न था किन्तु पारस ने उसके जीवन में प्रवेश करते ही उसका सब कुछ बदल डाला, उसका प्रेम, उसकी चाह, उसके स्वभाव ने उसके अपवित्र कलंकित जीवन को उज्जवल कर दिया था, सरस-सा उन्मादमय रस भर दिया था कि वह बड़ी-बड़ी कठिनाई का सामना करने को तैयार हो गई थी, उसने अतीत को मन से निकाल देने का प्रयत्न कर लिया था, अपना भविष्य संवारने का यही साधन था, शायद इसीलिए उसने द्वारकादास के सम्मुख इतना बड़ा झूठ बोला था कि वह पारस के बच्चे की मां बनने वाली थी, इसलिए कि उसके पास अपनी इज्जत जो अब उसके पति की अमानत थी बचाने का और कोई भी मार्ग न था।

किन्तु, यह बात रहस्य तो न रह सकेगी और द्वारकादास शीघ्र या देर से अवश्य जान जाएगा कि यह सफेद झूठ था, ऐसे में वह उसके प्राणों तक का बैरी बन जाएगा और उन्हें हानि पहुंचाने का प्रयत्न करेगा। उसके मन में रह-रहकर यह विचार यमदूत के समान खड़ा था।

थोड़ी देर बाद लड़कियां नीरा को भी खींचकर साथ ले गईं। भाभी होने के नाते मेंहदी की रस्म में उसका सम्मिलित होना आवश्यक था। रेवा की सखियां ढोलक पर गीत गाने लगीं। वे रह-रहकर चंचलता से रेवा की ओर देखकर मुस्कराती और रेवा बेचारी लाज से सिमटी मेंहदी लगवा रही थी। नीरा को सहसा पारस के कहे हुए वे शब्द याद आ गये ‘स्त्री का वास्तविक सिंगार तो उसकी लाज होती है, वह चली गई तो क्या रह जाएगा।’

वह भी बैठकर रेवा के हाथों में मेंहदी लगाने लगी। अचानक रेवा ने अपने मेंहदी-भरे हाथ उसके हाथों से खींच लिए और उनसे अपने मुख के सामने ओट-सी बना ली। नीरा को समझ न आया कि उसने ऐसा क्यों किया कि उसके कानों में पारस के ये शब्द पड़े- ‘रेवा। सावधान रहना, कहीं भाभी तुम्हारे हाथों की मेंहदी न चुरा ले।’ पारस यह कहता हुआ मुस्कराकर उसके पास आ गया।

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