ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘भाभी! यह क्या तुम रो रही हो?’ रेवा ने उसकी भीगी पलकें देखकर कहा।
‘नहीं तो…।’
‘झूठ।’ रेवा ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा और फिर क्षणभर रुककर बोली—‘मैं जानती हूं तुम क्यों रो रही हो।’
‘क्यों?’ नीरा ने मुस्कराने का विफल प्रयत्न करते हुए पूछा।
‘पहली बार मायका छूटा है न…अपना घर…इसीलिए।’
‘तो क्या यह घर मेरा नहीं है।’
‘है नहीं…हो जाएगा, धीरे-धीरे…अभी तो मायके की याद सताएगी…।’
‘नहीं रेवा। ऐसी बात नहीं है।’
‘पर भाभी? मेरा कलेजा तो कई दिनों से बैठा जा रहा है…।’ रेवा गंभीर हो गई।
‘क्यों?’
‘यह घर छोड़कर चली गई तो जीऊंगी कैसे? किसके आसरे?’
‘अपने प्रीतम के, वह मायके की सब याद क्षण-भर में ही भुला देंगे।’ नीरा ने मुस्कराकर उसे छेड़ा।
रेवा लजा गई और भाभी की गोद में सिर रखकर उसके गले में पड़ी बहुमूल्य माला से खेलती हुई बोली—
‘भाभी। पारस भइया तुम्हें पसन्द हैं ना?’
‘पगली। यदि पसन्द न होते तो मैं उनसे ब्याह ही क्यों करती।’ नीरा ने उत्तर दिया।
‘तुम बड़ी भाग्यशाली हो भाभी।’
‘तो क्या तुम्हें अपना दूल्हा पसन्द नहीं?’
‘मैं क्या जानूं-मैंने तो उन्हें देखा भी नहीं।’
‘सच?’
‘हूं…।’
‘सुना तो होगा कैसे हैं, मां जी तो कह रही थीं, अति सुन्दर हैं, बड़े शरीफ हैं।’
‘होगा—किन्तु न जाने क्यों मेरा कलेजा बैठा जा रहा है—यह सोचकर।’ रेवा कहते-कहते संकोच में रुक गई।
‘क्या सोचकर?’ नीरा ने झट पूछा।
‘वह भी मुझे चाहेंगे या नहीं।’
‘तुम्हें। एक चांदी सी दुल्हन को कौन न चाहेगा।’
‘और यदि उनसे मन न मिला तो?’
‘तो-तो-एक गुर बताती हूं।’
‘क्या?’ रेवा उसके निकट हो गई।
‘प्रेम और सिंगार से उन्हें वश में कर लेना।’
‘जैसे आपने भइया को वश में किया है।’ रेवा ने दबे स्वर में कहा और खिलखिलाकर हंस पड़ी।
‘हट शरीर…।’
इतने में रेवा की सखियों का झुंड उसे ढूंढ़ता हुआ भीतर आया और उसे बलपूर्वक भाभी से अलग करके ले गया। आज उसे मेंहदी लगनी थी। बाहर ढोलक की थाप पर लड़कियों के गीत चल रहे थे।
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