ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
इस नए स्थान पर आज वह बहुत प्रसन्न थी। उसे यों प्रतीत हो रहा था जैसे वह इन व्यक्तियों को एक समय से जानती है। उसकी नई भेंट इनसे नहीं हुई। सबमें घुल-मिलकर उसे एक नया आनन्द मिल रहा था जिसका भास इससे पहले उसने अपने जीवन में कभी नहीं किया था। शीघ्र ही वह तन-मन से सबके साथ ब्याह के काम-काज में जुट गई। सास ने उसे बहुतेरा रोका कि अभी-अभी वह आई है, अभी उसे विश्राम करना चाहिये किन्तु नीरा ने काम करना न छोड़ा। उसके जीवन में एक नूतन प्रवेश द्वार खुला था। एक विशाल मार्ग जिसमें विचरते हुए उसकी आत्मा को गर्व-अनुभव हो रहा था। एक नई स्वतन्त्रता का प्रथम भास…। जिसमें घुटन न थी।
रात को जब वह रेवा के पास बैठी उसकी मधुर भोली-भाली बातें सुन रही थी तो अचानक उसके कान पारस की आवाज सुनकर खड़े हो गए। वह साथ वाले कमरे में बैठा मां को वह सामान दिखा रहा था जो वह बम्बई से बहन के दहेज के लिए लाया था। इन सुन्दर बहुमूल्य चीजों को देखकर वह कह रही थी, ‘वह अवश्य कोई देवता हैं जिन्हें भगवान ने इस आड़े वक्त में हमारी लाज रखने के लिए भेजा है।’
‘हां मां! सेठ द्वारकादास वास्तव में देवता हैं, लाखों में एक।’
पारस के मुख से निकला ‘देवता’ यह शब्द नीरा के दिल पर एक बिजली-सी गिरा गया और उसके शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ गई। इस देवता का राक्षसी-रूप केवल उसी ने देखा था और उसकी कल्पना ही उसे भयभीत करने के लिए पर्याप्त थी। वह सोचने लगी यदि इस देवता का वास्तविक रूप उसे पता चल जाए तो उसके लिए वह जीवन में ही मृत समान हो जायेगी। उसके प्रति पारस का यह अपार स्नेह घृणा में परिवर्तित हो जाएगा—आज तो वह इस देवता के घिनावने पंजों में से किसी प्रकार बचकर निकल आई थी, किन्तु कल वह उसके शिकंजे में फड़फड़ा के रह जाएगी। उस पापी ने उसके पंख इस प्रकार कतरे थे उसके लिए विवश होकर भाग निकलना भी संभव न था। अन्त में फिर वह उसी के पिंजरे में आएगी, उसी जाल में—नारी का प्रसन्नता का भवन, रेत का भवन इस देवता के शब्द ने डगमगा दिया, उसका मुख गंभीर हो गया और फिर पलकों पर नीर सा तैरने लगा।
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