ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
पारस ने प्यार से उसे छाती से भींच लिया और उसकी पीठ पर हाथ फेरकर उसे सांत्वना देने लगा। पति के सहारे नीरा अपने अतीत को भूल गई, उस काले अतीत को वह सदा के लिए मस्तिष्क पर से मिटा देना चाहती थी, उसके सम्मुख सुन्दर भविष्य था, प्रकाशमान भविष्य, वह उसकी झिलमिल किरणों में खो जाना चाहती थी।
दोनों को सुध तब आई जब एक धक्के से गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। कम्पार्टमेंट की तीसरी सवारी चलती गाड़ी से भीतर आ चुकी थी। दोनों एकाएक झेंपकर अलग हो गए। आने वाले व्यक्ति ने मुस्कराकर उन्हें देखा जैसे अचानक किसी ने उन्हें इकट्ठे चोरी करते हुए पकड़ लिया हो।
गाड़ी की गति तेज हो गई, वह सामने वाली सीट पर जा बैठी, पहली बार पंजाब जा रही थी और वहां से रीति-रिवाज से अनभिज्ञ होने के कारण पारस से कई प्रश्न करती थी। पारस शिक्षक बना उसे कई काम की बातें समझाए जा रहा था।
जब वे अम्बाला पहुंचे तो पारस की मां और बहिन ने बड़े आदर और मान से नीरा का स्वागत किया। रेवा, पारस की छोटी बहिन तो भाभी को देखकर फूली न समाई। नई बहू को देखने के लिए मुहल्ले की स्त्रियां इकट्ठी हो गई थीं। पारस का मकान छोटा था, किन्तु घर की रौनक देखकर नीरा कुछ देर के लिए सब कुछ भूल गई और अपने नए सम्बन्धियों को बड़े चाव से निहारने लगी।
शादी-ब्याह वाला घर वैसे ही भरा-पूरा होता है किन्तु इस समय तो जैसे वहां दर्शकों का मेला लग गया था। सभी नीरा को देखने चले आ रहे थे इतनी अच्छी और सुन्दर बहू मिलने पर पारस की माताजी को बार-बार बधाई दे रहे थे। हरेक के मुख पर नीरा का ही नाम था, उसी की प्रशंसा। नीरा का दिल यह सब देखकर गद्गद् हो उठा। उसे यों लग रहा था इस घर में रेवा का नहीं उसी का ब्याह हो रहा हो, वही तो इस सभा की रौनक थी, केन्द्र थी।
बचपन से ही नीरा अकेली रही थी। द्वारकादास के अतिरिक्त अब तक कोई व्यक्ति घनिष्ठता से उसके जीवन में न आया था। पारस ही वह पहला पुरुष था जिसके सम्पर्क ने उसके जीवन का पूरा कोण बदल दिया, उससे मिलने के बाद वह पहली बार प्रेम का अर्थ केवल न समझी बल्कि उसे अनुभव किया उसने—प्रेम एक भावना ही तो है, यदि गिर जाए तो पाप की अथाह अंधेरी खोह में फेंक दे और उठ जाए तो प्रकाश के क्षितिज पर ले जाए, नीरा गिरकर अब स्वयं को उठा हुआ अनुभव कर रही थी, पारस के हाथ वह किरण थी जिसने उसे गहराई से निकाल कर आकाश पर बिठा दिया था। अब वह अपने लिए सोच सकती थी। जीवन के पहलुओं पर चिन्तन कर सकती थी—इससे उसे एक विशेष प्रकार की प्रसन्नता मिलती थी, एक अलौकिक मान-हर्ष।
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