ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
यह कहते हुए वह उसके पास बैठ गई। उसने अपनी सबसे सुन्दर साड़ी पहन रखी थी और अत्यन्त भली लग रही थी, जैसे बसन्त का ताजा निखरा हुआ फूल। पारस निरन्तर उसे निहारे जा रहा था। नीरा के आने से उसका उदास चेहरा हर्ष से खिल उठा।
‘यों क्या देख रहें हैं?’ नीरा ने तनिक लजाते हुए पूछा।
‘तुम्हारे नयनों में बंद संकोच के भोले पक्षी।’
‘नहीं, वे तो कब के उड़ गए।’
‘नहीं, इतनी सुगमता से वे उड़ पाएंगे।’
‘क्यों?’
‘स्त्री का सबसे बड़ा सिंगार उसकी लाज, उसका संकोच ही तो होता है—वह भी उड़ रहा तो क्या बचा रहा सौन्दर्य के पास?’
‘पारस के ये अनजाने कहे हुए शब्द नीरा के मन को गहराइयों तक छेड़ते हुए चले गए। अनायास उसकी आंखें झुक गयीं, किसी लाज से नहीं—शायद अपने अतीत के वस्त्रों पर लगी हुई कालिख से।
‘अरे। तुम्हें देखकर तो मैं पूछना ही भूल गया।’
‘क्या?’
‘अंकल की तबियत अब कैसी है?’
‘पहले से अच्छे हैं—तभी तो मुझे आने की अनुमति मिल गई।’ नीरा ने उत्तर दिया।
‘तबियत न भी ठीक हो—तुम्हें शायद रोक न सके।
‘क्या?’ नीरा किसी अज्ञात भय से कांप गई और अपनी झुकी हुई दृष्टि पारस तक ले गई।
‘बेटी को प्रथम बार ससुराल भेजकर उन्हें चैन कैसे आ सकता था।’
नीरा की आंखों में आंसू झलक आए जिन्हें पारस ने जेब से रूमाल निकालकर प्यार से पोंछ डाला और नम्रता से बोला—
‘याद आ गई उनकी क्या?’
पारस का प्रत्येक संक्षिप्त-सा वाक्य कांटा बनकर उसके सीने में चुभ जाता किन्तु वह स्वयं अपनी प्रतिक्रिया को उन पर प्रकट न कर सकी। उसका दिल भर आया और अपने सिर को उसने सीने के साथ लगाते बोली—‘नहीं, वास्तव में मैं आपके बिना वहां न रह सकी, मैं नहीं रह सकती आपके बिना।’ यह कहते हुए उसकी आंखों में आंसू बहकर पारस के कपड़ों को भिगोते रहे।
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