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कलंकिनी
कलंकिनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9584
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आईएसबीएन :9781613010815 |
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
१०
फ्रन्टियर मेल दिल्ली से चलने वाली थी। पारस अकेला अपने डिब्बे में बैठा नीरा के विषय में सोच रहा था जो इस यात्रा में उसकी सहयात्री न बन सकी थी। उसके सामने वाली सीट अभी तक खाली थी। समय बीत जाने के कारण वह सीट जो उसने नीरा के लिए बुक कराई थी कैंसिल न हो सकी थी। बम्बई से दिल्ली तक यह सीट ही उसकी साथी बनी रही, उसे नीरा की याद दिलाती रही।
वह नीरा को संग न ला सका—इससे बढ़कर उसे चिन्ता इस बात की थी कि उसे न देखकर मां और बहिन के मन पर क्या बीतेगी—उन्हें कितनी आस लगी होगी—वे किस व्याकुलता से उसकी प्रतीक्षा कर रही होंगी। ज्यों-ज्यों अम्बाला निकट आता जा रहा था। उसकी घबराहट बढ़ती जा रही थी। वह चुपचाप खिड़की पर ठोड़ी जमाए स्टेशन पर आते-जाते यात्रियों को देख रहा था। कितनी गहमा गहमी थी प्लेटफार्म पर, हर व्यक्ति व्याकुल दीख रहा था। उसकी दृष्टि प्लेटफार्म पर किसी गोरी के मेंहदी लगे पांव पर पड़ी। यह कोई दुल्हन थी जो धीरे-धीरे एक गुलाबी तुर्रे वाले सरदार के पीछे-पीछे चली आ रही थी। उन दोनों के अंतर से प्रतीत होता था कि दूल्हा-दुल्हिन का प्रथम संकोच नहीं गया—सरदार जी प्रसन्न थे कि उनकी प्रेमिका उनके संग थी और वह…पारस को एकाएक फिर नीरा का ध्यान आया और वह मुस्कराने लगा।
एकाएक उसने अपने पीछे एक मधुर ध्वनि सुनी। पहले तो उसने इस ध्वनि पर कोई ध्यान न दिया किन्तु जब आने वाले ने प्रश्न दोहराया तो उसके विचार की कड़ियां क्षण के लिए बिखर गयीं। कोई पीछे से उसके डिब्बे में प्रवेश करके पूछ रहा था—
‘क्या यह सीट खाली है?’
‘जी।’ उसने पलटकर देखा और देखता ही रह गया, सामने नीरा खड़ी मुस्करा रही थी। उसे क्षण भर के लिए विश्वास न आया और आंख झपकाकर फिर उसे देखने लगा।
‘देख क्या रहे हैं—मैं नीरू हूं।’ नीरा ने आगे बढ़ते हुए कहा।’
‘किन्तु, तुम।’
‘आज शाम को हवाई जहाज से दिल्ली पहुंच गई।’
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