ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘कहा ना मैंने…अब केवल तुम्हारे शरीर का मालिक रह गया हूं।’
‘नहीं, नहीं यह संभव नहीं।
‘क्या?’ द्वारकादास ने द्वार के साथ पीठ लगाकर खड़े होते हुए पूछा।’
‘आज की रात, अब मैं आपको क्योंकर समझाऊं।’ उसकी आवाज में भरपूर दुःख था, प्रार्थना थी।
‘तो मैं समझ लूं तुम मेरे जीवन से दूर जाना चाहती हो।’
‘नहीं।’
‘तो क्या अब तुम्हें मुझसे घृणा हो गई है?’
‘नहीं, नहीं।’
‘तो स्पष्ट कहो तुम्हारे मन में क्या है?’
‘मुझे आज की रात कुछ न कहिये।’
‘अखिर क्यों?’
यह कहते हुए द्वारकादास ने बलपूर्वक नीरा की दोनों बाहें अपनी पकड़ में ले लीं। नीरा एक झटके के साथ अलग हो गई और उखड़ी हुई सांस से दूसरी ओर मुंह करके बोली—
‘इसलिए, इसलिए कि अब, अब मैं पारस के बच्चे की मां बनने वाली हूं।’
इस वाक्य ने मानो द्वारकादास पर बिजली गिरा दी। वह कांपकर एकाएक नीरा से परे हो गया, नीरा झट किवाड़ खोलकर बाहर निकल गई फिर पूरी गति से भागकर अपने कमरे में चली गई थी और भीतर से किवाड़ बंद करके तकिए में सिर छिपाकर रोने लगी।
द्वारकादास कुछ देर पत्थर-सा बना शून्य में देखता रहा और फिर बोझिल पैरों से अपने बिस्तर पर आ बैठा। अकस्मात गर्म पानी की थैली उसके नीचे आ गई। जिसकी जलन ने उसके क्रोध के पारे को और बढ़ा दिया। उसने झट एक ओर हटकर थैली उठाई और पूरे बल से फर्श पर दे मारी। एक आवाज हुई, थैली का ठक्कन खुल गया और जलता हुआ पानी कालीन सोखकर उसकी पीड़ा को दूर करने लगा। क्या यह पानी द्वारकादास के गुर्दे की पीड़ा के लिए था या कालीन के लिए?
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