ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘दो मार्ग हैं मेरे सामने, एक ओर पति-पूजा, और दूसरी ओर आपका प्रेम, समझ में नहीं आ रहा कि किसका साथ दूं, किससे विश्वासघात करूं।’ यह कहते-कहते नीरा की आवाज भर्रा आई। उसके अंदर की पीड़ा उसके होंठों पर आ गई थी, उसकी पलकें यह कहते हुए पूरी तरह भीग गई थीं। अचानक उसे चक्कर-सा आया और वह गिरने लगी कि द्वारकादास ने उसे संभाल लिया और कुर्सी पर बिठा दिया, स्वयं वह कुर्सी के पास खड़ा होकर उसे देखने लगा। शायद नीरा की समस्या उसके लिए भी गुत्थी बन गई थी।
‘अंकल। अब आप ही बताइए मैं क्या करूं?’ द्वारकादास के मौन का सहारा लेते हुए कुछ देर बाद उसने उसी पर प्रश्न किया।
द्वारकादास सोच में पड़ गया। नीरा उसी के लगाये घावों का उसी से उपाय पूछ रही थी। शायद वह अपनी भोली-भाली बातों से प्रभाव डालकर उसकी योजना के महल के गिरा देना चाहती थी…उसकी अभिलाषाओं को राख करना चाहती थी वह।
‘नीरा।’ बहुत सोच-विचारकर उसने नीरा को सम्बोधित किया।
‘जी…।’
‘स्त्री के पास दो बहुमूल्य चीजें है—एक उसका यौवन—उसका शरीर और दूसरा उसका दिल।’
नीरा ने उसकी बात को समझते हुए उसकी ओर देखा, द्वारकादास ने प्यास से उसके कपोल थपथपाये और बोला, ‘आज हमें तुम्हारी विवशता का भास हुआ है—और तुम्हारी समस्या का सुझाव हमने सोच लिया।’
‘क्या?’
‘आज से हम दोनों—मैं और पारस एक समान ही साझीदार होंगे?’
‘क्या?’
‘तुम्हारे दिल का स्वामी होगा पारस और तुम्हारा शरीर हमारे लिए होगा, आज से हमने तुम्हारे प्रेम को स्वतन्त्र कर दिया है हम अकेले ही तुम्हारे लिए तड़पेंगे।’
‘तो।’
नीरा के मुंह से कांपते हुए स्वर में निकला जिसे द्वारकादास ने नहीं सुना। नीरा से अलग होकर वह शीशे की अलमारी की ओर बढ़ा। नीरा मूर्तिमान खड़ी उसे अंधेरे में उधर जाते हुए देखती रही। आलमारी के पास जाकर उसने लाइट ऑन कर दी और शराब की बोतल निकालकर गिलास में उंड़ेलने लगा। इसके बाद वह बाहर के द्वार की ओर लपका और भीतर से चटखनी चढ़ाने लगा। नीरा अनायास किसी अनजाने भय से अपने स्थान से उठी और उसे द्वार से एक झटके के साथ अलग करते हुए चिल्लाकर बोली—‘यह आप क्या कर रहे हैं?’
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