ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा का मस्तिष्क चकरा रहा था। वह बिल्ली को आते देख कबूतर के समान आंखें बंद करके खड़ी हो गई। इन क्षणों में उसके दिल में कितनी ही भावनाएं उठीं, उसके मस्तिष्क में कई विचार उठे, एक-दूसरे के विपरीत, इस पाप की सभा में उसका अस्तित्व कई बार लुट चुका था, किनती ही घिनावनी अंधकारमय रातों ने अपनी कालिमा उस पर पोती, फिर आज इस समय क्यों वह अपने आपको इससे बचाना चाहती है और इससे बचने का कौन-सा मार्ग था? कौन-सा उपाय?
वह सोचों में संघर्ष में डूबी थी कि अंकल की सांस की दुर्गन्ध ने उसे और ठेस लगाई। उन्होंने उसे देख सीने से लिपटा लिया। नीरा की समझ में कुछ न आ रहा था कि क्या करे, उसका अधिक विरोध पारस के लिए हानिप्रद हो सकता था—अब यही विचार उसकी चिन्ता बन गया था—न भागने का मार्ग न ठहरने का स्थान।
‘क्यों, क्या सोच रही हो?’ द्वारकादास ने सांस उसके मुंह पर छोड़ते हुए पूछा।
‘हूं।’
‘यों सहमी हुई हो जैसे डर लग रहा हो।’
‘हां, न जाने क्यों आज मन बहुत डर रहा है।’
‘तो ऐसे मन को बाहर निकाल फेंको।’
‘इसे बाहर फेंक दिया तो निर्जीव शरीर का क्या करेंगे।’
‘अपने प्रेम की गरिमा से फिर प्राण भर दूंगा, मुझ पर भरोसा रखो नीरू।’ यह भ्रम छोड़ दो।’
‘नहीं…नहीं यह पारस के प्रेम की हत्या होगी।’ उसके मुख से अनायास ये शब्द निकल पड़े।
पारस का नाम सुनते ही द्वारकादास के तेवर बदल गये, क्रोध से उसकी आंखें लाल हो गईं। उसने नीरा को झिंझोड़ते हुआ पूछा—
‘तुम्हें पारस से प्रेम हो गया है क्या?’
‘अपने पति से किसे प्रेम नहीं होता।’
‘तो क्या यह एक ढोंग था?’
‘नहीं सत्य था, कठोर सत्य जिसका सामना करने का मुझ में अब मनोबल नहीं।
‘मैं समझा नहीं नीरू?’
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