ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘एक बेबस पक्षी के समान सहमी हुई नीरा एक ओर हटकर खड़ी हो गई। उसका मन तो चाहा कि वहां से भाग जाए और कभी न लौटे, किन्तु काले अतीत ने मानो उसके पांव यहीं जकड़ दिए हों, वहां से हटने का उसे साहस न हुआ, यों लगा जैसे उसकी पूर्ण शक्ति पारस के साथ ही चली गई है।
‘अब हाल कैसा है?’ उसने सहमे हुए कुछ समय बाद पूछा।
‘तुम्हारे स्पर्श से सब पीड़ा चली गई है।’
‘अब चली गई है या थी नहीं?’
‘नीरू…।’ वह उसका नाम लेकर रह गया।
‘मैं न जानती थी, आप मुझे जाने से रोकने के लिए यह नाटक रचेंगे।’
‘नीरू। इसे नाटक न कहो—प्रेम कहो—प्रेम का पागलपन।’
‘प्रेम।’ नीरा ने व्यंग्य से यह शब्द दोहराया।
‘हां नीरू, इसमें कोई छल नहीं, पीड़ा अब भी है, विश्वास न हो तो दिल पर हाथ रखकर देख लो, वास्तव में गुर्दे का रोग न था, दिल का रोग था, किन्तु वह बात जुबान पर न ला सका।’ उसने रुक-रुककर कहा।
‘यह आपने अच्छा नहीं किया।’ भर्राई आवाज में नीरा ने कहा।
‘क्या?’
‘मुझे रोककर वह क्या सोचेंगे, मुझे न देखकर उसकी मां और बहन क्या कहेंगी, कितनी निराश होंगी वे।’
‘वे निराश न होंगी नीरू।’ यह कहते हुए द्वारकादास संभलकर बैठ गया। नीरा ने झट बत्ती जला दी। द्वारकादास की आंखों में भूख थी विलासिता की और नीरा की आंखों में बेबसी। द्वारकादास ने झट लपककर फिर स्विच ऑफ कर दिया। कमरे में क्षण भर के लिए सन्नाटा छा गया जिसे तोड़ते हुए द्वारकादास ने कहा, ‘तुम कल के हवाई जहाज से जा सकती हो।’
‘तो आज की रात मुझे रोकने से…।’
अभी शब्द उसकी जुबान पर ही थे कि एकाएक चुप हो गई, उसने अनुभव किया कि द्वारकादास बिस्तर छोड़कर फर्श पर खड़ा हो गया था। नीरा का दिल धक-धक करने लगा। द्वारकादास ने ज्यों ही अपना हाथ उसकी कमर पर रखना चाहा वह दुःख भरी आवाज में चिल्लाई— ‘अंकल।’
‘इस रात की तो मैं बड़े दिनों से प्रतीक्षा कर रहा हूं, नीरू। मैं तुम्हारे बिना पागल हो जाऊंगा, नीरू, पागल।’ द्वारकादास ने हांफते हुए कहा और दोनों हाथ नीरा के कंधों पर रख दिए।
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