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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘क्या?’ द्वारकादास सहसा गर्मी को अनुभल करके परे खिसक गया।

‘गर्म पानी की थैली है…इसे पीठ पर रखिएगा—सेंक से पीड़ा थम जाएगी।’

‘पीड़ा कम तो हो ही गई है तुम्हारे इत्ते मीठे शब्दों से, घड़ी भर पास बैठ जाओगी तो सब दूर हो जाएगी।’

नीरा उसकी बातें सुनकर चुप हो गई। बड़ी कठिनता से अपनी इच्छा के विरुद्ध वह उसके कमरे में आई थी और अब यह अनुभव कर रही थी कि उसने भीतर आकर भूल की है—उसके आने से द्वारकादास की वासना फिर जवान हो गई थी। नीरा ने वहां से भागना चाहा, किन्तु उसके हाथ में द्वारकादास के हाथों में थे जिनसे निकलना संभव न था। द्वारकादास ने खींचकर उसे पास बिठा लिया।

‘जरा अपने हाथ से रख दो न।’ नीरा का हाथ थामे हुए ही उसने कहा।

‘क्या?’

‘यह गर्म थैली…।’

नीरा ने कांपते हाथों से थैली उसकी पीठ पर जमा दी, अभी वह झुकी हुई उठी न थी कि उसने द्वारकादास के हाथों की पकड़ अपनी कमर पर अनुभव की। एक झटके से उसने अलग होना चाहा किन्तु उसका दुपट्टा द्वारकादास के हाथ में आ गया था।

‘छोड़िए ना।’ थरथराते हुए स्वर में उसने कहा।

‘आज की रात।’ द्वारकादास कुछ कहते-कहते रुक गया। यह छोटा सा वाक्य नीरा के मस्तिष्क पर तलवार बनकर गिरा, वह सिर से पांव तक कांप गई। जिस बल से उसने अपने आपको उससे अलग करना चाहा उसी शक्ति से द्वारकादास ने दुपट्टे में लिपटी हुई उसके गर्दन को अपनी ओर खींचा। नीरा को विश्वास हो गया कि उसकी पीड़ा केवल एक बहाना थी। वह आज तक उसकी अनुचित हरकतों से न घबराई थी, इस समय उसके दिल पर एक आघात-सा लगा और वह डर से पसीने में लथपथ हो गई।

‘ओह!’ इस शीघ्रता का भास करते हुए द्वारकादास ने अपनी पकड़ ढीली कर दी और भद्दी हंसी-हंसते हुए बोला—‘घबरा गईं—बहुत दिनों के बाद मिली हो न, दिल फिर भी दिल है—वश नहीं रहा।’

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