लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> कलंकिनी

कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

कमरे में रोशनी नहीं थी। नीरा द्वार के पास बाहर ही खड़ी हो गई और कान लगाकर सुनने लगी। थोड़े-थोड़े समय पश्चात् भीतर से अंकल के कराहने की ध्वनि आ रही थी। शायद उन्हें फिर पीड़ा का दौरा पड़ा था। नीरा खड़ी ‘हाय-हाय’ की आवाज को सुनती रही, भीतर जाने का साहस न हुआ।

थोड़ी देर बाद उसने विष्णु को देखा जो रसोई से गर्म पानी की थैली लिए द्वारकादास के कमरे की ओर बढ़ा चला आ रहा था। नीरा कुछ सोचकर आगे बढ़ी, उसके हाथ से पानी की थैली ले ली और स्वयं धीरे से किवाड़ खोलकर कमरे के भीतर आ गई।

कमरे में अंधेरा था। वह बहुत धीरे-धीरे पांव उठाती उसकी चारपाई की ओर बढ़ी। हल्की-हल्की कराहने की ध्वनि निरन्तर आ रही थी। एकाएक उसका पांव किसी चीज से टकराया और द्वारकादास चौंककर बोला, ‘कौन?’

‘मैं हूं नीरा कहते हुए नीरा ने स्विच ऑन करके साइड लैम्प जला दिया।

द्वारकादास ने झट मुंह दूसरी ओर कर लिया और लड़खड़ाती आवाज में बोला—

‘बन्द कर दो यह बत्ती…आंखों को लगती है।’

नीरा ने उजाले में देखा कि पीड़ा से उसके शरीर की नसें भिंड गई थीं। नीरा ने स्विच ऑफ कर दिया और कमरे में फिर अंधेरा छा गया। वह चुपचाप उनके बिस्तर के पास जाकर खड़ी हो रही।

‘बैठ जाओ, नीरा।’ द्वारकादास ने बड़े नम्र स्वर में धीरे से कहा।

नीरा चुपके से बिस्तर के पास लगी कुर्सी पर बैठ गई, द्वारकादास ने गहराई से उसके मौन का परखा और फिर बोला—

‘मैं तो समझा था कि तुम पारस के संग अम्बाला चली गई हो।’

‘आपको यों पीड़ा में तड़पता छोड़कर भला मैं यहां से जाने की हठ क्यों कर सकती थी।’ नीरा ने उसका मन रखने को कहा।

नीरा के मुख से यह वाक्य सुनकर द्वारकादास मानो जी उठा हो। वह तकिये का सहारा लेकर बैठ गया और उसका हाथ अपने हाथों में लेकर बोला—‘मुझे तुमसे यही आशा थी, नीरू।’

‘यह लीजिये।’ नीरा ने गर्म पानी की थैली उनके शरीर से छुआते हुए कहा।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book