ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा दिल में उठे तूफान को बसाकर अपने कमरे में आई और सिंगार की मेज के पास खड़ी हो गई। उसने दर्पण में अपने आपको देखा। उसकी आंखों में अब भी वह ज्वाला थी जिसका परिचय वह द्वारकादास को देकर आई थी—किन्तु उसका मन भय से कांप रहा था। उसकी टांगों में हल्का-सा कम्पन था—उसे डर था कि कोई आपत्ति उस पर आने वाली है। थोड़ी देर वह दर्पण के सामने स्थिर खड़ी रही और फिर बैठ गई। मन में उठा ज्वर निरन्तर बढ़ रहा था। बढ़ता ही जा रहा था, न जाने इसका अन्त क्या था? उसके मस्तिष्क में एक अनोखा संघर्ष चल रहा था।
इसी बेध्यानी में, सोचों में खोए उसने अपने केश खोल दिए। काले और लम्बे घने केश उसके कंधों पर यों फैल गए जैसे सुन्दर घाटी में घनघोर घटाएं घिर जाएं फिर उसने सुगंधित तेल की शीशी का ढकना धीरे से खोला और बालों को छिटक वह भीनी-सुगन्ध उनके द्वारा पूरे कमरे में फैली दी—जैसे समीर गुलाब की क्यारियों से छेड़-छाड़ कर गई हो। अचानक उसने दर्पण में देखा कि द्वारकादास ने भीतर प्रवेश किया और इस सुगन्ध पर नाक सिकोड़ने लगा। इससे पहले कि वह पलटकर उसका समना करती। द्वारकादास ने द्वार बंद कर दिया और झट उसके सामने आकर कुर्सी पर बैठ गया। नीरा ने माथे पर सिलवटें लाकर उसकी ओर देखा।
‘कई दिन से तुम्हारे व्यवहार में एक अनोखा परिवर्तन देख रहा हूं। एक लापरवाही सी।’ द्वारकादास ने उसकी दृष्टि को काटते हुए कहा।
‘कोई गलतफहमी है, ऐसी कोई बात नहीं।’ नीरा ने उत्तर दिया।
‘क्या यह सच नहीं कि हर आने वाला कल तुममें एक नया परिवर्तन ला रहा है?’
‘जीवन के लिए परिवर्तन तो आवश्यक है।’ नीरा ने उत्तर दिया और फिर पलटकर केस संवारने लगी। उसकी दृष्टि आईने में द्वारकादास पर ही लगी रही जो यह सुनकर क्रोध पर वश पाने का प्रयत्न कर रहा था।
‘कहीं यह परिवर्तन मेरी मृत्यु की अग्र सूचना तो नहीं।’
‘अंकल।’ नीरा ने बाल बांधते हुए फिर पलटकर उसकी ओर देखा और कुछ कहते-कहते रुक गई, वह शायद द्वारकादास के घाव का अनुमान लगा रही थी।
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