ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
पारस जब द्वारकादास के कमरे से निकला तो नीरा सिंगार की मेज के सामने खड़ी बाल संवार रही थी। पारस दबे पांव उसके पीछे आकर खड़ा हो गया। नीरा ने पलटकर देखा और बोली—
‘मैं तैयार हूं आप शीघ्रता कीजिए।’
‘किन्तु अभी गाड़ी के जाने में पूरे चार घंटे पड़े हैं।’ पारस ने उसकी व्याकुलता का अनुमान लगाया।
‘तो क्या-क्या रास्ते में समय न लगेगा—सामान बुक कराना है—सीट ढूंढ़नी है—यह सब—पर आप यह घूर-घूरकर क्या देख रहे हैं।’
‘देख रहा हूं?’
‘क्या?’
‘लड़कियों को ससुराल जाने का कितना चाव होता है।’ पारस ने धीरे से उसके कान के पार मुंह ले जाकर कहा। नीरा के मुख पर संकोच की लालिमा बिखर आई। पारस ने धीरे से उसके दोनों कंधों पर अपने हाथ रख दिए और उसे केश संवारते हुए देखने लगा। शीशे के सामने खड़े-खड़े नीरा ने बनते हुए कहा—‘कहिए तो मैं न जाऊं।’
‘यही सोच रहा हूं, इससे तुम्हें दुःख होगा।’
‘तो क्या?’
‘हां नीरू। अब मुझे अकेले ही जाना होगा।’ पारस ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा।
नीरा का चेहरा यह बात सुनकर एकाएक पीला पड़ गया, उसके होंठ फड़फड़ाये किन्तु मुंह से कोई शब्द न निकल पाया। पारस ने उसके चेहरे का उड़ा हुआ रंग देखा और बोला, ‘अंकल की इच्छा भी है कि तुम रुक जाओ—उनकी दशा अधिक बिगड़ गई तो कठिन हो जाएगा।’
‘कठिन क्या होगा—और फिर जो उन्होंने आपके सामने मुझे जाने की आज्ञा दी है।’
‘तुम्हारा मन रखने के लिए, वह तो अब भी यही कह रहे थे किन्तु मेरी बात सुनकर उन्होंने मन की बात कह दी।’
‘क्या?’
‘ऐसी दशा में नीरू एक क्षण भी मुझसे दूर रहे—मन नहीं मानता।’
‘और आप मान गए?’
‘इसमें मानने-न-मानने की क्या बात थी, विवशता न होती तो मैं भी रुक जाता नीरू। ऐसी दशा में उन्हें छोड़कर जाना हमें शोभा नहीं देता—वह स्वयं भले ही कुछ न कहें किन्तु, हम अपना कर्तव्य नहीं भूल सकते।’
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