ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा चुप हो गई और बिखरी हुई सिंगार की चीजों को समेटने लगी। उसकी अभिलाषाओं पर पानी फिर गया। उसे यों अनुभव हुआ मानो उसके मन में फूटी हर्ष की फुलझड़ियां एकाएक राख हो गई हों। एक धुआं-सा उठा उसके मन में जिसे वह भीतर ही पी गई। वह द्वारकादास की घिनावनी चाल को समझ गई। वह पारस की अनुपस्थिति में अपनी वासनापूर्ति करना चाहता था—कितने ही दिनों से उसकी काम इच्छाएं घुट-सी रही थीं—उनको स्वतन्त्र करने का इससे सुन्दर कौन-सा अवसर हो सकता था। नीरा को खेद तो इस बात का था कि वह अपनी भावनाएं किसी पर प्रकट न कर सकती थी। उसके मन की पुकार सुनने वाला कौन था? वह किसे सुनाए? किससे कहे? पति की भावनाओं का आदर भी आवश्यक था। उसकी आंखें भीग आईं।
‘नाराज हो गईं मुझसे नीरू।’ उसे उदास देखकर पारस ने पूछा।
‘नहीं तो…।’
‘मुंह से चाहे न कहो किन्तु, मैं मानता हूं तुम्हारा मन रो रहा है।’
‘आपने कैसे जाना?’ एक अनजान भय से वह कंपकंपा गई।
स्वयं पारस के मुख पर उदासी की झलक थी। नीरा को यों लगा कि सचमुच वह उसकी पीड़ा को पा गया है और अब दृष्टि से उसके अंदर की गहराइयों में उतरने का प्रयत्न कर रहा था, पारस ने उसकी भीगी आंखों में देखा और बोला—
‘तुम्हारे दिल की धड़कन सुनकर—जो किसी प्रकार अब स्वयं मेरे अपने दिल की धड़कनों से अलग नहीं।’
पारस के ये शब्द एक सुहावनी पीड़ा बनकर नीरा के अन्तस्थल में उतर गए। उसकी आंखें छलक आईं और वह उसके सीने पर अपना सिर रखकर नयनों की धारा से इस उठी हुई ज्वाला को शांत करने के प्रयत्न करने लगी। पारस ने अपनी अंगुलियां उसके बालों में गाड़ दीं और उसे सीने से लगाते हुए धीरे से बोला—
‘किन्तु एक वचन ले लिया है मैंने अंकल से।’
‘क्या?’ नीरा ने अगल होते हुआ पूछा।
‘यदि कल उनकी दशा ठीक हुई तो तुम्हें हवाई जहाज द्वारा भिजवा दें।’
नीरा को इस वचन से कोई प्रसन्नता न हुई, यह आज्ञा न थी—एक कड़ी थी जंजीर की जो उसके इर्द-गिर्द लपेटी जा रही थी—यह कालिमा थी उजाले का नाम लिए हुए।
उसी शाम को पारस फ्रन्टियर मेल पर अंबाला चला गया।
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