ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘और उपाय भी क्या है नीरू।’ द्वारकादास ने लम्बी सांस खींचते हुए नीरा से दृष्टि मिलाई। नीरा अधिक समय तक इन क्रूर आंखों का सामना न कर सकी और दाएं-बाएं देखते हुए उसने अपनी दृष्टि पारस के चेहरे पर गाड़ दी। पारस इस लंबे निश्वास के रहस्य को न समझ पाया था।
कमरे में मौन छा गया जिसे अनुभव करते हुए द्वारकादास ने धड़ सीधा किया और पारस को सम्बोधित करके पूछा—
‘तुम लोग जा रहे हो शाम की गाड़ी से।’
‘जी…किन्तु अब प्रोग्राम बदलना पड़ेगा।’ पारस ने झट उत्तर दिया और फिर नीरा की ओर देखा जिसे यह बात शूल के समान छेद गई थी।
‘पर क्यों?’
‘आपको इस दशा में छोड़कर किस प्रकार जा सकते हैं।’
‘नहीं पारस। ब्याह में अब दिन ही कितने हैं, और यह पीड़ा अभी न जाने कितने दिल चले।’ पीड़ा से मचलकर रुकते-रुकते द्वारकादास ने कहा।
‘अंकल ठीक ही कहते हैं, प्रोग्राम बदलना उचित नहीं।’ नीरा झट बीच में बोली। वह डर रही थी कि अंकल और कोई ऐसा निर्णय न दे दें जिसका उल्लंघन करना कठिन हो जाए, द्वारकादास ने कठोर दृष्टि से उसे देखा, नीरा फिर बोली—‘ब्याह में पहले पहुंचना अत्यंत आवश्यक है और फिर यहां डाक्टर हैं, वकील साहब हैं, वह संभाल लेंगे।’
‘हां पारस। नीरा की बात मानो और चले जाओ, न जाने तुम्हारी मां और बहन क्या आस लिए बहू को देखने के लिए उत्सुक होंगी, नीरा आज पहली बार ससुराल जा रही है।’ द्वारकादास धीमे, कोमल और भावपूर्ण स्वर में बोला। यह कहते हुए उसकी पलकें कुछ भीग गईं।
नीरा चुपचाप खड़ी सुनती रही। पारस ने आंखें झुका लीं। वह वाद-विवाद में पड़ना न चाहता था। द्वारकादास ने एक बार फिर दुःखी मन से नीरा को देखा और बोझिल स्वर में बोला—
‘जाओ नीरू। शीघ्र तैयार हो जाओ, गाड़ी का समय न निकल जाए।’
नीरा बाहर चली आई। उसने अनुभव किया कि द्वारकादास उसके मन में मां बाप और बलपूर्वक अपनी भावनाओं को दबाकर उसका मन रखने के लिए सहमत हो गया है, उसने शीघ्र पूरा सामान बांध लिया और लगभग तैयार होकर बैठ गई, अभी गाड़ी छूटने में चार घंटे थे किन्तु वह शीघ्र स्टेशन पहुंच जाने के लिए आतुर हो रही थी। उसका मन अभी तक भय रहित न हुआ था। वह डर रही थी कि अंकल किसी समय भी अपना निर्णय बदल सकते थे।
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