ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘तो मैं विश्वास रखूं कि मेरी नीरू मुझे धोखा नहीं देगी।’ द्वारकादास के कुम्हलाए चेहरे पर हल्की-सी खिलन आ गई।’
‘कदापि नहीं…।’ नीरा ने चंचलता से मुस्कराकर उसकी ओर देखा और अपने कमरे की ओर चली गई।
पारस सिंगार की मेज पर सामने खड़ा दर्पण में देखकर नेक्टाई बांध रहा था। पीछे से नीरा का प्रतिबिम्ब देखकर वह मुस्कराया और पलटकर उसे देखने लगा।
‘चलिए! नाश्ता तैयार है…अंकल कब से बैठे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं…।’ उसने आगे बढ़ते हुए कहा।
‘ओह! मैं आया, जरा यह नॉट।’
‘लाइए मैं लगा दूं…।’ नीरा पास आकर उसकी नेक्टाई में गांठ लगाने लगी।
‘अंकल ने कुछ न कहा—‘कुछ पूछा।’ पारस ने नीरा की आंखों में झांकते हुए प्रश्न किया।
‘क्या?’
‘यही…कि नीरू! तुम्हें लड़का पसन्द आ गया?’
‘यह तो नहीं पूछा, किन्तु उन्होंने एक बात कही है।’
‘क्या?’
‘उन्होंने कहा है, नीरू। रातभर घर से दूर रहना अच्छा नहीं, समझीं…।’
पारस इस बात पर अनायास हंसने लगा। नीरा भी हंस दी। यह दोनों की एक साथ हंसी नीचे कमरे तक पहुंची और द्वारकादास को यों प्रतीत हुआ जैसे वे दोनों मिलकर उस पर हंस रहे थे, उसकी मूर्खता पर हंस रहे थे। वह क्षणभर के लिए विस्मय में पड़ गया।
नेक्टाई पर नॉट लगा देने के बाद नीरा हटने लगी कि पारस ने उसके दोनों हाथ अपनी हथेलियों में ले लिए और फिर उन्हें अपने गालों से छूकर देखने लगा।
‘मेरा भाग्य देख रहे हैं इन हाथों में…।’ नीरा ने प्यार-भरी दृष्टि से देखते हुए पूछा।
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