ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा चुप हो गई और मेज के साथ रखी अलमारी से छुरी-कांटे निकालने लगी। द्वारकादास किसी गंभीर सोच में खो गया और फिर पैनी आंखों से नीरा की हरकतों को देखने लगा। जब प्याले सजाते हुए नीरा उसके निकट आई तो वह झट अपना हाथ खींचकर परे हो गई।
‘यह सब काम तो नौकर भी कर सकता है, नीरू।’ स्वर में कृत्रिम कोमलता लाते हुए उसने नीरा को देखा।
‘किन्तु आज मैं कर रही हूं, आप ही कहते थे लड़कियों को स्वयं घर का काम करना चाहिये।’
‘कहा था, किन्तु ब्याह के कुछ समय बाद, अभी तो तुम्हारे हाथों में मेंहदी भी नहीं उतरीं।’
‘मेहंदी।’ व्यंग्यात्मक ढंग से नीरा ने कहा—‘जब हाथों पर मेंहदी लगी ही न हो तो उतरने का क्या डर।’
यह कहकर वह फ्रिज की ओर बढ़ी और उसमें से ठण्डे फल निकालकर प्लेट में सजाने लगी। शायद द्वारकादास की भावनाएं भी इन फलों में शीत समान हो चुकी थीं। वह सोचने लगी—किन्तु, नहीं उसके दिल में तो ईर्ष्या की ज्वाला धधक रही थी।
‘तुम दोनों कल रातभर कहां थे?’ द्वारकादास ने अचानक पूछा।
‘समुद्र के किनारे, लहरों का संगीत सुन रहे थे।’
‘नीरू। अपनी भावनाओं को इतना खुला न छोड़ो कि फिर उन्हें संभालना कठिन हो जाए।’ उसने बोझिल मन से बड़े धीमें स्वर में कहा।
नीरा ने कोई उत्तर न दिया और आंखें झुकाये अपने काम में लगी रही। द्वारकादास क्षणभर चुप रहकर फिर बोला—
‘नीरू! न जाने क्यों मेरा मन कुछ डरने लग गया है।’
‘यह आपका भ्रम है…अंकल।’ नीरा ने आंखें मिलाते हुए कहा।
‘हो सकता है…किन्तु यह भ्रम वास्तविकता बन गया तो क्या होगा?’
‘कुछ नहीं होगा…आप व्यर्थ मन छोटा करते हैं।’ नीरा ने अपने भावों पर गंभीरता का खोल चढ़ाते हुए कहा।
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