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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘नहीं। देख रहा हूं इन कोमल हाथों पर मेंहदी कैसे खिल रही है।’

‘तभी तो अंकल कह रहे थे।’

‘क्या कह रहे थे अंकल?’

‘कि तुम्हें काम करने की अभी कोई जरूरत नहीं है—अभी तो तुम्हारे हाथों में मेंहदी भी नहीं उतरी।’

‘हाथ की मेंहदी तो उतर ही जाएगी किन्तु मन की मेंहदी बहुत गूढ़ है नीरू, उसमें संकोच, लाज, प्रेम और सतीत्व का रंग है, इसमें किसी का मान छिपा हुआ है, इज्जत है इसमें, यह रंग उतर गया तो मान अपमान में परिवर्तित हो जाएगा।’

‘किसका?’ नीरा ने झट पूछा।

‘एक पतिव्रता—पवित्र दिल स्त्री का।’ पारस ने उसकी ठोड़ी उठाकर आंखों में आंखें डालकर उसकी ओर देखा। नीरा उसके सीने से लग गई।

नाश्ता करके पारस तो द्वारकादास के संग दफ्तर चला गया और वहां रह गई केवल नीरा अपने विचारों के विशाल सागर में डूबी। वह घर की चहारदीवारी जहां ऐश्वर्य का राज्य था अब उसे खाने को दौड़ती थी, वह नीरा जिसके संकेत पर पूरा घर नाचता था आज उसे पारस की सेवा करने में आनन्द मिल रहा था, प्यार का अंकुर जो उसके दिल में फूटते ही कुचल गया था फिर, अचानक पारस की निकटता से उभर आया। एक विचित्र अनुभव था यह जिसने नीरा के सपाट जीवन को बदल दिया, कायाकल्प हो गई हो, एक नूतन आत्मा, एक नवीन शरीर, उसके रोम-रोम में एक अद्भुत महक समा गई थी, कल्पना की रंगी तरंगों ने उसे एक नया रंग प्रदान किया था—और फिर एकाएक भयनाक पर्दे ने उसके विचारों को अपनी लपेट में ले लिया—एक काली पाप की परछाई जो उसके अतीत से विषैले अजगर के समान लिपटी हुई थी।

दिन बीतते गए। नीरा के विचारों ने कई मोड़ लिए। उसने बहुत कुछ देखा, समझा…वह हर्ष से प्रसन्न भी हुई और खेद से कराह भी उठी। पारस का व्यवहार उससे अति सुन्दर था। नीरा को यों प्रतीत हो रहा था मानो वह सचमुच पारस था जिसके स्पर्श ने उसके लौह-रूपी जीवन को कुन्दन बना दिया था।

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