ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
द्वारकादास ने उसे बात पूरी न करने दी और बोला, ‘उसकी प्रथम रात थी…तुम्हारी सुहागरात—है ना किन्तु आज की रात मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं कि इस फूलों की सेज पर कोई अन्य व्यक्ति मेरी नीरू के कोमल शरीर से लिपटा हो और मैं रात के मौन में करवटें लेते हुए तड़पता रहूं…क्यों?
तुम्हारे क्या विचार हैं?’
‘यह अच्छा नहीं किया आपने।’
‘क्या?’ द्वारकादास ने उसके कपोलों को छुआ।
नीरा ने उसके हाथ को झटकते हुए उत्तर दिया—
‘पहले ही दिन उन्हें भेजकर संदेह में डालना अच्छा नहीं।’ नीरा के स्वर में भरपूर विवशता थी…पिंजरे में बंद पंक्षी की विवशता।
‘मैं इतना मूर्ख नहीं कि इसे न समझूं…वह काम ही ऐसा था कि उसका जाना आवश्यक था…और फिर तुम…।’ उसने नीरा की ओर उंगली से संकेत करते हुए कहा—‘तुम यह कैसे सहन कर सकती थीं कि इस समय कोई हमारे प्यार की घड़ियां चुराकर ले जाता।’
नीरा चुप रही। उसे कोई उपाय न सूझ रहा था, कोई उत्तर उसके मन में न आ रहा था। वह अंधकार में पड़ गई थी, जहां उजाले की एक भी किरण न थी। स्वयं अपने ही बिछाए हुआ जाल में वह फंस गई थी और अब व्यर्थ फड़फड़ा रही थी। वह फूलों की सेज जिस पर उसने अभी-अभी कल्पनाओं के स्वर्ग बनाए थे नरक बन गई—एकाएक—फूलों की कोमल पत्तियां कंटीले शूलों में परिवर्तित हो गयीं।
‘मुझसे नाराज हो क्या नीरू?’ उसके मौन को देखते हुए द्वारकादास ने पूछा।
‘नहीं तो…।’ नीरा ने बड़े उदास-भाव में आंखें नीची किए हुए उत्तर दिया।
‘फिर क्या सोच रही हो?’
‘एक ही बात…।’
‘क्या?’
‘कहीं हमारा यह अनोखा खेल हमारे जीवन को न ले डूबे।’
‘पागल न बनो…मैं अति सावधान हूं…हमारे इस सुन्दर प्रेम-रहस्य को पारस तो क्या इस घर की हवा तक न जान सकेगी…हां, तुम भी जरा सावधानी से रहना।’ यह कहते हुए नीरा के और निकट हो गया और दोनों हाथों से उसके चेहरे को ऊपर उठाकर उसके सौंदर्य को निहारने लगा।
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