ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा ने उसकी आंखों में नाचती हुई वासना को देखा और फिर आंखें झुका लीं…इससे बचने का कोई मार्ग न था…हारे हुए खिलाड़ी के समान उसका मनोबल मर चुका था।
द्वारकादास ने हाथ बढ़ाकर स्विच ऑफ कर दिया। अंधेरा होते ही नीरा के मन को एक धक्का-सा लगा। वह फूलों की सेज पर कंपकंपा कर रह गई और इस कंपन की पीड़ा को उसके मन के अतिरिक्त किसी ने नहीं देखा, किसी ने नहीं जाना। इससे पहले कितनी ही काली रातें उसके जीवन में बीत गई थीं और कुछ न हुआ था। पाप के अंधकार में सब कुछ छिप गया था…किन्तु यह रात उसके सुहाग की रात एक काली नागिन के समान फन उठाए, उसे लपेटे में लिए जा रही थी…उसकी सांस घुटने लगी, व्यर्थ, सब व्यर्थ…अंकल की दुर्गन्धमय सांसें उसके कानों में निरन्तर विष डाले जा रही थीं…कोमल फूल इस महान पाप के तले कराहते हुए पिस गए किन्तु उनके निःश्वास को किसी ने न सुना, उनकी हत्या को किसी ने न देखा।
और पाप की रातों के समान वह रात भी बीत गई। इस पर भी दिन ने पर्दा डाल दिया। हर प्रभात गई रात के पापों को पीछे छोड़ती हुई नई आशा लाती है। नया संदेश लाती है। यों ही जीवन चलता है, रात, प्रतिरात, दिन प्रतिदिन—पाप और पुण्य के स्थान बदलते रहते हैं—बदलते रहेंगे।
धूप खिड़की के शीशे से छनकर दुल्हन की सेज को मुस्कराकर देख रही थी। नीरा अभी तक पलंग पर थी। उसका पूरा शरीर यों टूट रहा था मानो रात-भर चलती रही हो। हल्के से ताप से उसके अंग जल रहे थे। दो-एक बार उसने लेटे-लेटे करवट ली, आंखें खोलीं बिस्तर पर मसले हुए फूलों को देखा और फिर आंखें मूंद लीं।
अचनाक किसी स्वर की गूंज ने उसे जगा दिया। उसने धड़कते हुए दिल को संभाला और धड़ उठाकर साथ के कमरे में से आती हुई आवाज को सुनने लगी। यह पारस की ध्वनि थी जो पूना से लौट आया था और द्वारकादास से बातें कर रहा था। नीरा के कपोलों में हल्की-सी उषा उभर आई। वह पलंग की टेक लेकर बैठ गई।
द्वारकादास से विदा लेकर पारस उसके कमरे में आया उसने धीरे से किवाड़ खोला और पांव की आहट दबाए हुए उसके पलंग के पास आकर खड़ा हो गया। नीरा ने जान-बूझकर उसकी ओर न देखा।
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