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कलंकिनी
कलंकिनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9584
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आईएसबीएन :9781613010815 |
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
धीरे-धीरे शाम रात में परिवर्तित हो गई। बारी-बारी आमंत्रित अतिथि घरों को चले गए, वह बंगला जहां कुछ समय पहले रंग और सौन्दर्य का मेला-सा लगा था, वह स्थान जो हंसी और ठहाकों से गुंजायमान था वहां अब निस्तब्धता छा गई। बंगले के बाहर जगमगाती हुई बिजली कि पंक्तियां केवल यह बता रही थीं कि इस घर में आज ब्याह हुआ है…दो अनजान व्यक्ति जीवन के दम्पति बन गए हैं। नीरा अपने कमरे में बैठी पारस की प्रतीक्षा कर रही थी। ऊपर बारहदरी में शराब का दौर चल रहा था। इस शुभ अवसर की प्रसन्नता में सेठ द्वारकादास ने अपने कुछ अति प्रिय मित्रों को मदिरापान के लिए रोक लिया था।
नीरा बैठे-बैठे थक गई थी। रात लगभग आधी बीत चुकी थी। उसका पलंग फूलों से सजा हुआ था और कमरा भीनी-भीनी महक से बसा था। यह रात उसके लिए अनोखी रात थी। उसकी अपनी रात थी यह नूतन अनुभव की रात। वह सोच रही थी शायद इसी रात में वह अपने जीवन की सब समस्याओं को सुलझा लेगी। यह रात उसकी कालिमा को छिपा देगी और आत्मा को उज्जवल कर देगी…अतीत भयानक था, वह बीत गया, भविष्य सुन्दर है आना ही चाहता है। यह रात उसके लिए जीवन-परिवर्तन की रात थी।
रात बीतती गई, सन्नाटा बढ़ता गया। नीरा के मन पर भय की घटनाएं छाने लगीं। वह सोचने लगी शायद अंकल ने पारस को भी पिला दी हो…वह तो शराब न पीता था। फिर उसे अंकल का विचार आया, कहीं ऐसा तो नहीं दुःखी मन से उन्होंने अधिक पी ली हो…कहीं वह रात भर ही न पीते रहें, वह उनकी लत को जानती थी और जब वह निरन्तर पीते रहते थे तो वह स्वयं उनके सामने से बोतल उठा लेती…किन्तु आज? आज इस दशा में वह वहां कैसे जा सकती थी…और यदि चली भी जाए और पारस भी वहां हो और नशे में वह कोई अनुचित हरकत कर बैठे तो जीवन के प्रथम दिन ही एक कड़वाहट भर जाएगी।
उसे बरामदे में कई आदमियों की आहट सुनाई दी। शायद मधुशाला बंद हो गई थी। उसका अनुमान ठीक था। मोटरों की ध्वनि बता रही थी मित्र-मण्डली विदा हो गई है।
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