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कलंकिनी
कलंकिनी
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9584
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आईएसबीएन :9781613010815 |
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
७
इसके ठीक एक महीने बाद सचमुच नीरा और पारस के स्वप्न साकार हो गए। अकस्मात् की छोटी-सी दो अनजान व्यक्तियों की भेंट एक ऐसे गठजोड़ में बंध गई जिसे समाज और जमाना नहीं जोड़ सकता था। सेठ द्वारकादास ने ब्याह अत्यन्त सादा ढंग से किया किन्तु शाम को मित्रों, सम्बन्धियों और नगर के अन्य चुने हुए व्यक्तियों को एक शानदार पार्टी में आमंत्रित किया।
यह शाम नीरा और पारस के जीवन की सबसे रंगीन शाम थी। नीरा दुल्हन के वस्त्रों में सजी-धजी आमंत्रित व्यक्तियों से भेंट लेते-लेते थक गई थी। उसके पास एक-से-एक बढ़िया, सुन्दर वस्तुओं का ढेर लग गया था। वह कभी-कभार पारस को देख लेती जो अति प्रसन्न दिख रहा था। सभा में एक अनोखी गहमा-गहमी थी। प्रत्येक आमन्त्रित सुन्दरी इधर-से-उधर अपने अर्धनग्न शरीर चमकते हुए गहनों और फड़कते हुए वस्त्रों की प्रदर्शनी कर रही थी। हंसी-मजाक और चुहलें चल रही थीं। इस रौनक में एक चेहरा ऐसा भी था जिसे देखकर नीरा के मन में धक्का-सा लगता और वह कांप जाती। उस चेहरे की कृत्रिम मुस्कराहट में छिपी दुःख की रेखाओं को वह भली-भांति देख रही थी। रेखाएं प्रतिक्षण गहरी और काली होती जा रही थीं।
यह चेहरा था सेठ द्वारकादास का…द्वारकादास नीरा के अंकल…द्वारकादास जिसने पिता के स्थान पर उसका कन्यादान किया था। उसके चेहरे पर एक विशेष फीकी हंसी थी…नाममात्र की हंसी जो वास्तव में मन की कालिमा का पर्दा होते हुए भी उसे स्पष्ट कर रही थी। कोई बुद्धिमान व्यक्ति ध्यानपूर्वक देखकर कह सकता था कि वह इससे कदापि प्रसन्न नहीं। वह शायद सोच रहा था कि उसने नीरा का ब्याह करके बड़ी भूल ही नहीं बल्कि मूर्खता की है…उसने स्वयं अपने हाथों से उसे सदा के लिए खो दिया है, अपनी रंगीन रातों का गला घोंट लिया है…अपने आनन्द के सिर पर राख डाल ली है…उसने वह काम किया है जिसके लिए उसे जीवन भर पछताना पड़ेगा। अंकल की मनोदशा का अनुमान लगा के नीरा का चेहरा फीका पड़ गया। अचानक उसे उसके वे शब्द याद आये, नीरा। डरता हूं कि कहीं पारस को तुम्हारे समीप लाकर मैं अपने प्रेम का गला तो नहीं काट रहा।’
नीरा इन्हीं विचारों में इतनी खो गयी थी कि उसे ध्यान भी न रहा कि वह इस पार्टी का केन्द्र थी। सहसा पारस की आवाज ने उसे चौंका दिया। अंकल और वकील साहब ने अपनी भेंट देते हुए उसे आशीर्वाद दिया और आगे बढ़ गए। नीरा की दृष्टि द्वारकादास की दृष्टि से टकराई और नीरा ने झट आंखें नीची कर लीं। अंकल के विषाद भरे चेहरे को देखने का उसमें मनोबल न था, यों लगता था जैसे उसकी आंखों में आंसू थमकर रह गए हों। द्वारकादास ने भी उससे कोई बात न की और आगे बढ़ गया। नीरा का यह सिंगार इस बात की सूचना था कि वह उसकी नीरू नहीं…पराई नीरा देवी है।
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