ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘किन्तु…।’ नीरा क्षण भर के लिए रुकी—‘यदि मेरा निर्णय आपके ही पक्ष में हो तो…।’
‘जी।’ पारस भौंचक्का सा रह गया और फटी-फटी आंखों से उसे देखने लगा, मानो उसकी सब बातें एक ही बार में समाप्त हो गई हों।
‘मैं आपके अंदर की बात जानना चाहती हूं…मैं यह नहीं चाहती कि आप किसी विवशता के अधीन अंकल की बात मान लें और फिर जीवन भर पछताएं…आप अपने मन के स्वामी हैं, अपने विचारों पर आपको पूर्णतया अधिकार है, यदि आप कोई बात अंकल से नहीं कह सके तो मुझसे स्पष्ट रूप से कह दें…अच्छा है कि हम कुछ गुप्त न रखें।’ अन्तिम शब्द नीरा के मुंह से अनायास ही निकल गए। वह कांप-सी गई।
‘तो क्या मन की बात कहूं?’
‘हां…।’ नीरा ने आशंकित स्वर में कहा।
‘आप मेरी जीवन-संगिनी बनें…यह मेरा सौभाग्य होगा।’
‘आप मन से कह रहे हैं?’
‘हां, यह कल्पना मैंने तब की जब एक दिन सांझ को डूबते आपसे भेंट हुई थी…मैंने आपकी तस्वीर उतारी थी…तब यह स्वप्न था, स्वप्न जैसे हुआ करता है किसी अनजान मनचाहे मीत को देखकर, किन्तु उस समय मैं नहीं जानता था कि कोई मेरे अंदर की पुकार को सुन रहा है—और यह स्वप्न साकार बन जाएगा।’ पारस की ध्वनि में उसके भावुक मन की झलक थी, उसके अन्तःस्थल का प्रतिबिम्बि था जिसे नीरा ने अनुभव किया।
स्वयं नीरा का दिल इससे गद्गद् हो उठा और उसके मुख पर उषा की-सी लालिमा निखर आई। यह एक संदेश था जो एक दिल ने दिया और दूसरे ने लिया और दोनों उन्मादित हो गए।
‘‘मिस्टर…पारस।’ कुछ देर मौन का रसपान करने के बाद नीरा ने अति कोमल स्वर में उसे सम्बोधित किया।
पारस ने खिले हुए मुख से उसे देखा। नीरा ने बात चालू रखी—
‘आपके स्वप्न साकार बन गए तो अवश्य ही मेरी कल्पनाएं भी वास्तविक हो जाएंगी। न जाने क्यों हर ऐश्वर्य के होते हुए भी मैं इतना एकाकी क्यों अनुभव करती हूं।’
‘तो मिस नीरा। क्या मैं यह समझ लूं कि…।’
‘क्या?’
‘कि पारस को आपके सुन्दर मन ने खरीदा है…आपके धन ने नहीं…।’
‘नहीं, ऐसा कभी नहीं सोचिएगा…।’ नीरा ने यह कहते हुए अपना हाथ पारस की ओर बढ़ा दिया। पारस ने अनुभव किया कि उस सुन्दर हाथ में उस प्यार की गरिमा थी जो केवल अन्तर की गहराई से उठता है…वह प्रेम जिसमें आत्मिक सौन्दर्य छलकता है।
अचानक पीछे से आहट होने पर उसने सहसा अपना हाथ खींच लिया, वह नौकर था जो नीरा को सूचना देने आया था कि द्वारकादास जाग उठा था।
‘आप चलिए अंकल के पास, मैं अभी आती हूं।’ यह कहकर नीरा अपने कमरे की ओर चली गई। और पारस द्वारकादास से मिलने के लिए सीढ़ियां चढ़ने लगा।
आज दोनों प्रसन्न थे। दोनों के दिल में कोकिल आ बैठी थी। दोनों के मस्तिष्क में प्रेम-भावना का नृत्य हो रहा था।
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