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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

थोड़ी देर में नौकर चाय की ट्रे ले आया। नीरा चाय बनाने लगी और पारस ने उसे देखा, जब तक वह प्यालों में चाय उड़ेलती रही वह मौन बैठा उसे देखता रहा। उसे समझ न आ रहा था उस विषय पर किस प्रकार उसके मन की टोह ले।

‘आप यों मेरी ओर बार-बार क्यों देख रहे हैं?’ नीरा ने चाय का प्याला उसकी ओर बढ़ाते हुए पूछा।

‘नहीं तो…।’ उसने संभलते हुए कहा और झट चाय का प्याला होंठों से लगा लिया। उसके शरीर की कम्पन से नीरा ने अनुभव किया कि चाय अधिक गर्म थी।

‘कहिए आपकी तबियत तो ठीक है?’ नीरा ने उसकी घबराहट पर आई हंसी को छिपाते हुए पूछा।

‘जी, बिल्कुल ठीक…।’ पारस ने खड़ी हुई दृष्टि से उसे देखा।

‘मिस्टर पारस।’ नीरा ने उसकी मनोदशा को बनाने का प्रयत्न करते हुए उसे सम्बोधित किया।

‘जी…।’

‘आपसे कुछ मन की बात कहना चाहती थी…।’

‘जी…।’

‘कल अंकल ने मुझसे कोई विशेष बात कही है।’

‘जी! ऐसी ही एक विशेष बात मुझसे भी उन्होंने कही है।’ उसने झट उत्तर दिया।

‘क्या कहा उन्होंने आपसे?’ उसने तुरन्त पूछा।

‘वही जो आपसे कहा।’

‘बात तो वही है…इसलिए सोचती हूं कोई भ्रम न रहे किसी प्रकार का।’

‘यही मैंने भी उनसे कहा था कि आप पहले नीराजी के मन को जांच लीजिए…मुझे विश्वास था कि आप उनके प्रस्ताव को कभी मानने के लिए तैयार नहीं होंगी।’

‘वह क्यों?’ उसने गंभीर होते हुए पूछा।

‘इसलिए, शादी-ब्याह कोई गुड़ियों का खेल तो है नहीं कि जिसको चाहा जिसके पल्ले मढ़ दिया…आपको अधिकार है कि अपना भला-बुरा विचार कर निर्णय कर सकें…जीवन भर का सम्बन्ध यही महत्वपूर्ण बात है।’

‘तो क्या मेरा निर्णय ठीक है।’

‘मेरे विचार से तो बिल्कुल ठीक है…और उचित भी यही था…ठीक तो तब न होता जब बिना आपसे पूछे बलपूर्वक वो आपको मेरे साथ विवाह-सूत्र में बांध देते…तब शायद मैं सदा के लिए आपकी दृष्टि में गिर जाता।’ पारस ने एक ही सांस में कह डाला।

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