ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘कौन दुश्मन?’ नीरा ने सहमे हुए पूछा।
‘मेरे ससुराल वाले, चचा-ताऊ की संतान बहुतेरी हैं…ऐसे जो इस पर दृष्टि लगाए बैठे हैं।’
‘क्या छीन लेंगे वह मेरा?’
‘सब कुछ ही छीन सकते हैं…इसीलिए सोचा यह सब अभी तुम्हारे नाम लिख दूं।’
‘यह बात है…।’ नीरा ने सांत्वना की सांस ली, द्वारकादास उसके समीप बैठ गया।
‘और यदि आपसे पहले भगवान मुझे ही उठा ले तो?’
‘हट पगली।’ द्वारकादास ने नीरा के मुंह पर हथेली रख दी और फिर प्यार से उसकी पीठ थपथराने लगा।
एकाएक टेलीफोन की घंटी की आवाज सुनकर वह उठकर ड्राइंगरूम में चला गया और नीरा अकेली रह गई, शाम ढल रही थी और हल्की हवा में बेल पर लगे फूलों के सुगन्ध से वातावरण महक रहा था। नीरा की उस दिन तस्वीर-शायद भाग्य से ही वह तस्वीर अकस्मात उसकी तस्वीर से मिल गई थी—और वह अनायास हंसने लगी।
रात को नीरा द्वारकादास की गोद में सिर रखे लेटी हुई थी और वह उसके लम्बे खुले बालों में धीरे-धीरे उंगलियां फेर रहा था, एकाएक नीरा के मुंह से हल्की-सी चीख निकली।
‘क्या हुआ नीरू?’ द्वारकादास ने वहीं रोककर पूछा।
‘आपने बाल खींच लिए।’
‘ओह…सॉरी…ध्यान नहीं रहा।’
‘कुछ देर मौन रहा, द्वारकादास ने उसके बालों से फिर खेलना आरंभ कर दिया।
‘…अंकल!’ नीरा ने द्वारकादास को सम्बोधित किया, इस समय उसके स्वर में असाधारण कोमलता थी।
‘हूं।’
‘उससे कोई बात हुई क्या?’
‘किससे?’ द्वारकादास ने उसका आशय जानते हुए भी जान-बूझकर पूछा।
‘पारस से।’
‘अभी नहीं। दो-एक बार उससे बात करनी भी चाही किन्तु अवसर नहीं मिला। सोचता हूं कोई ऐसी स्थिति आ जाए कि बात भी हो जाए और मान बना रहे।’
‘मैंने उसके मन को टोह लिया है।’
‘कैसे?’ द्वारकादास ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।
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