ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
नीरा ने करवट ली और धड़ सीधा करके लेट गई। फिर अंकल के ड्रेसिंग-गाउन की रस्सी को अपनी उंगली के गिर्द लपेटती हुई बोली—
‘अभी उसके शादी-ब्याह की कहीं कोई बात नहीं हुई। परिवार भी छोटा-सा है केवल मां और एक छोटी बहिन।’
‘क्या वह मान जायेगा?’
‘शेष सब बातें तो हमारी अपनी अवश्यकतानुसार हैं किन्तु।’ वह कहते-कहते रुक गई।
‘किन्तु क्या?’ अंकल ने पूछा।
‘उसे इस ब्याह के लिए सहमत करना मेरे वश की बात नहीं, यह काम आप कीजिएगा।’
‘मैं…?’ द्वारकादास ने बड़े दुःखी मन से कहा।
‘हूं, आप कहेंगे तो वह कभी इंकार न करेगा, इसमें आपका मान भी है।’
‘तो, तो ठीक है, अवसर मिलने पर मैं कहूंगा।’ बोझिल स्वर में अंकल ने उत्तर दिया।
नीरू मन-ही-मन अंकल के मन के बोझ का अनुमान लगाते हुए उसकी गोद में लेटी रही, आज इस अनोखे प्यार में उसने तनिक भी क्षुब्धता प्रकट न होने दी, मानव मन अपने स्वार्थ के लिए समयानुसार कैसे ढल जाता है।
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