ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘मानिए, अकस्मात् आपके जीवन में कोई ऐसी लड़की आ जाए जिसका दृष्टिकोण आपकी धारणा से भिन्न हो।’
‘तो, फिर शायद मुझे अपना दृष्टिकोण बदलना पड़े।’ पारस ने मुस्कराते हुए कहा। नीरा को होंठों पर भी एक मुस्कान खिल आई। इस वार्तालाप ने उसे पारस के अन्तर का हल्का-सा परिचय दे दिया था। और यही वह चाहती थी।
जब वह पारस को रास्ते में छोड़कर घर लौटी तो द्वारकादास बैठक में बैठा चाय पी रहा था। उसे देखते ही नीरा की सुन्दर कल्पनाओं पर भय की बदली छा गई। जो सुहावने स्वप्न उसने अभी-अभी बसाए थे, उसकी एक ही वासनामय दृष्टि से छिन्न-भिन्न हो गए।
भीतर आते ही उसने चाभियों का गुच्छा मेज पर रखा और अपने लिए चाय बनाने लगी। द्वारकादास ने चाभियों को देखते हुए पूछा—
‘पारस आया था क्या?’
‘नहीं, स्वयं ही ऑफिस गई थी।’
‘क्यों? क्या आवश्यकता थी इसकी?’ द्वारकादास ने प्रश्न किया। उसका स्वर बता रहा था कि उसे नीरा का अकेले में वहां जाना अच्छा नहीं लगा।
‘यों ही मार्केट तक गई थी—सोचा आप होंगे इकट्ठे आ जाएंगे, किन्तु आपको वहां न पाकर निराशा हुई।’ यह कहकर वह सिर नीचा करके चाय पीने लगी।
‘मुझे पता होता तुम आओगी तो मैं कहीं न जाता।’
‘कहां थे आप?’
‘वकील के यहां चला गया था।’
‘क्या कोई नया मुकद्दमा…?’
‘नहीं…एक परामर्श करना था।’
‘क्या?’ नीरा ने गंभीर होकर पूछा।
‘सोच रहा था कि अभी वसीयत कर डालूं कि मेरे मरने पर जायदाद तुम्हें मिल जाए…यों ही बैठे-बैठे विचार आ गया।’ द्वारकादास ने उत्तर दिया।
‘हटिए। मैं आपसे नहीं बोलती, इतनी अशुभ बात…।’ नीरा कहकर वहां से एकाएक उठकर चली गई।
द्वारकादास भी चाय का प्याला वहां रखकर उसके पीछे निकल आया। नीरा चबूतरे पर जाकर बैठ गई जहां उस दिन पारस ने तस्वीर उतारी थी, द्वारकादास ने उसका मूड बिगाड़ दिया था।
‘अरे! इसमें बिगड़ने की कौन-सी बात है। द्वारकादास ने पास आकर पूछा।
‘आपने मुंह से बुरी बात क्यों निकाली?’ उसने बिसूरते हुए कहा।
‘पगली! मौत का नाम ले लेने से भला कोई मरता है, मैं तो कल की सोच रहा था। जीवन का क्या भरोसा। मरना तो एक दिन सभी को है, हां डर रहा था मेरे मर जाने पर मेरे दुश्मन कहीं तुम्हारे अधिकार भी न छीन लें।’
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