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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘ओह! क्षमा कीजिए मैं भूल ही गई। क्या लीजिएगा…कॉफी या चाय?’ उसने तस्वीर मेज पर रखते हुए पूछा।

‘धन्यवाद! कुछ नहीं…मैं अभी नाश्ता करके चला था।’

‘यों नहीं…कुछ तो पीजिएगा।’ यह कहकर नीरा दूसरे कमरे में गई और शीघ्र ही स्वयं चाय की ट्रे लेकर लौट आई।

उसने एक कप पारस के हाथ में थमा दिया और स्वयं दूसरा प्याला उठा लिया। चाय पीते हुए वह निरन्तर पारस के बिखरे हुए बालों को देख रही थी जो वर्षा से भीगकर उसके माथे पर चिपक गए थे। उसके मुख पर एक विचित्र प्रकार का भोला-भाला बाल्यपन बरस रहा था। कैमरा उसके कंधे से लटक रहा था।

कुछ देर मौन एक-दूसरे को देखने के बाद नीरा ने पूछा—‘क्या कैमरे में फिल्म है?’

‘जी…।’

‘आपको कहीं शीघ्र जाना तो नहीं?’

‘नहीं तो…।’

‘क्या यह संभव नहीं कि…।’ वह कहते-कहते रुक गई।

‘हां, हां, कहिये।’ पारस ने उसे रुकते देखकर उत्साह से कहा।

‘मेरी कुछ तस्वीरें और उतार लें आप…।’

‘अवश्य…।’ पारस ने कंधे से कैमरा उतारकर हाथ में ले लिया। चाय पी चुकने के पश्चात् वह पारस को लेकर अपने कमरे में आई और उसे वहां छोड़कर स्वयं वस्त्र बदलने के लिए साथ वाले कमरे में चली गई। कमरे का वातावरण भीगे इत्र से सुगन्धित था, दीवारों पर टंगी तस्वीरें और शेष ऐश्वर्य के सामान देखकर पारस चकित रह गया।

एक कोने में रखी वीनस की एक मूर्ति को ध्यानपूर्वक देख रहा था कि अचानक कमरे में अंधेरा छा गया। किसी ने खिड़की की लोहे की चिक को बंद कर दिया था। अभी वह संभल भी न पाया था कि एकाएक उस शयन-गृह की छत पर टंगे झाड़ फानूस जगमगा उठे और इस चकाचौंध रोशनी में उसके साथ के कमरे से नीरा को आते देखा और वह एकटक उसे देखता रह गया।

नीरा स्कर्ट और ब्लाऊज में अति सुन्दर लग रही थी। उस पश्चिमी पहनावे ने उसकी यौवन-रेखाओं को निखार प्रदान कर उसे एक ज्वाला-सी बना दिया था…सौन्दर्य का लाल भभूका शोला।

‘आइए…।’ यदि नीरा मुंह से यह शब्द कहकर उसकी तन्मयता को भंग न कर देती तो शायद वह सदा के लिए उसे एकाग्र देखता रहता

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