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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

वह एक चंचल पोज में ड्रेसिंग टेबल के पास खड़ी हो गई और पारस को तस्वीर उतारने का संकेत किया। इसी प्रकार विभिन्न नये वस्त्रों में अनेक अन्दाज में उसने कई चित्र उतरवाये।

कमरे के भीतर और बरामदे में तस्वीरें उतरवा चुकने के पश्चात् उसे एक तस्वीर बंगले के पिछवाड़े फूलों में खड़े होकर उतरवाने का विचार आया। बाग के मध्य में एक छोटा-सा सीमेंट का चबूतरा था जिसके तीन ओर घने फूलों की क्यारियां थीं और सामने सुन्दर बेलों का एक द्वार-सा बना था। नीरा भागकर चबूतरे पर खड़ी हो गई और पारस को तस्वीर उतारने का संकेत किया।

‘ठहरिए। यो नहीं…।’

पारस कैमरे को एक ओर रखकर उसके समीप आया और उसका पोज ठीक करने लगा। नीरा बेलों के मंडप में यों खड़ी थी मानो चौखटे में जड़ी तस्वीर हो। पारस ने धीरे से उसकी ठोड़ी को उठाया और फिर उसके कंधे पर हाथ रखकर शरीर को तनिक घुमाते हुए उसे नीचे देखने को कहा जिससे सौन्दर्य और संकोच का भाव उत्पन्न हो। हर बार तनिक से भी शरीर के स्पर्श से उसकी धमनियों में एक बिजली-सी दौड़ जाती और फिर वह सहसा कुछ सोचकर दूर हट जाता। नीरा को इसमें एक विचित्र आनन्द का भास हो रहा था और हर बार जान-बूझकर यों खड़ी हो जाती जिससे पारस को निकट आकर उसकी ठोड़ी को छूना पड़े।

पारस ज्यों ही कैमरा लेकर सामने खड़ा हुआ कि नीरा ने मुंह दूसरी ओर कर लिया।

‘ओह, पोज फिर बिगड़ गया।’ पारस ने कमैरा उसके सामने से हटाते हुए कहा।

‘तो फिर ठीक कर लीजिये…।’

वह एक बार फिर कैमरे को वहीं रखकर नीरा के पास आया और दोनों हाथों से उसकी कमर को छूकर पोज को फिर संवारने लगा। नीरा अत्यन्त आकर्षक चंचलता से होंठों में मुस्कान दबाये उसे देखे जा रही थी। अभी पारस का वहां से हटना था कि उसने एकाएक अपने दोनों हाथ उसके कंधे पर गिरा दिए। पारस इस हरकत से यों चौंक उठा मानो किसी ने कांटा चुभो दिया हो।

‘आई एम सॉरी…पोज देते-देते थक गई थी।’ नीरा ने उसकी घबराहट का भास किया और हाथ हटा लिए।

‘अच्छा होगा आप कुछ देर आराम कर लें।’ पारस वास्तव में उसकी इस हरकत से घबरा गया था।

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