ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
३
वर्षा अब भी थमी न थी। तीन दिन हो गए, निरन्तर बादलों ने ऊधम मचा रखा था। बम्बई वासियों को पता भी न चला कि कब दिन चढ़ा और कब ढल गया। सर्वत्र जल-ही-जल दिखाई देता था। नीरा तीन दिन से निरन्तर घर की चहारदीवारी में कैद थी।
द्वारकादास किसी काम से पूना गया हुआ था और नीरा बिल्कुल अकेली पिंजरे में घायल पंक्षी के समान तड़प रही थी…न कोई बात करने वाला न मन बहलाने वाला…करे तो क्या करे, उसने एक-दो सखियों को टेलीफोन पर अपने यहां आने का आग्रह भी किया किन्तु इस प्रलय में किसी को घर से निकलने का साहस न हुआ। बेचारी दुविधा में बैठी सोच रही थी कि क्या करे, क्या न करे कि सहसा नौकर ने आकर सूचना दी ‘कोई साहब आए हैं।’
‘जाओ कह दो राय साहब पूना गए हैं।’
‘किन्तु आपसे मिलने के इच्छुक हैं।’
‘मुझसे, कौन?’ नीरा ने आश्चर्य से पूछा।
‘पारस बताया है अपना नाम।’
‘यह नाम सुनकर नीरा क्षण भर के लिए रुक गई और फिर बोली—‘बिठलाओ उन्हें…मैं अभी आ रही हूं।’
नीरा जब बैठक में पहुंची तो पारस कुर्सी पर बैठा मेज पर रखी कुछ अंग्रेजी पत्रिकाओं को देख रहा था। नीरा को आते देखकर उसने खड़े होकर अभिवादन दिया।
‘कहिए कैसे आना हुआ?’ नमस्कार का उत्तर देते हुए नीरा ने सोफे पर बैठते हुए पूछा।
‘आपकी अमानत लौटाने आया था।’
‘अमानत?’ उसने आश्चर्य से पारस की ओर देखा।
‘जी! यह लीजिए…।’ यह कहते हुए उसने लिफाफे में से एक तस्वीर निकालकर उसके सामने रख दी।
‘ओह ब्यूटीफुल…।’ नीरा अपनी सुमद्र के किनारे वाली तस्वीर देखकर हर्ष से चिल्लाई, ‘आपने तो कमाल कर दिया।’
‘कमाल तो उस मालिक का है जिसने आपको इतना सुन्दर बना दिया।’ पारस ने मुस्कराते हुए उसकी प्रशंसा की।
‘जी…।’
‘मेरा अभिप्राय है भगवान से…।’ उसने उत्तर दिया। नीरा के मन में समीर-सी चलने लगी, होंठों पर फूल खिल उठे, उसने कोमल दृष्टि से पारस को देखा और फिर अपनी तस्वीर को देखने लगी। उसने इससे पहले काफी तस्वीरें खिंचवाई थीं किन्तु इतनी मोहिनी उनमें कभी न पाई थी। स्वयं अपने सौन्दर्य पर उसने मन में एक गर्व-सा अनुभव किया।
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