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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

जब वह तस्वीर उतारकर पलटने लगा तो नीरा ने धीरे से पुकारा—

‘पारस साहब। यदि अनुचित न समझें तो एक फोटो मेरी भी उतार लीजिये।’

‘ओह! आप…।’ वह आश्चर्य से निस्तब्ध वहीं खड़ा रह गया।’

‘शायद आपने पहचाना नहीं?’ नीरा ने मुस्कराते हुए कहा।

‘यों कैसे हो सकता है?’ एक बार देखकर आजीवन नहीं भुला सकता और फिर आपका तो उपकार है मुझ पर…लिफ्ट दी थी न…।’

‘ओह! यह तुच्छ-सी बात उपकार है…कहिए क्या हो रहा है?’

‘इस ढलती हुई सांझ का सौन्दर्य चित्रित कर रहा था।’

‘तो क्या खिलती हुई प्रभात का सौन्दर्य चित्रित नहीं कीजिएगा।’ और मुस्कराते हुए बोली—‘अर्थात् मेरा चित्र लीजिए।’

‘आइए! सामने…।’ पारस कैमरे को सैट करते हुए बोला।

नीरा पेड़ के तले से उठकर समुद्र की ओर पीठ करके उसके सम्मुख खड़ी हो गई। सागर की लहरों में डूबते हुए सूर्य की किरणें और होंठों से किरणें बिखेरती हुई युवती…चित्र के लिए इससे उचित अवसर कब मिलता। पारस ने लैंस फिट किया और झट क्लिक करके मुस्कराते हुए बोला, ‘थैंक्यू…तैयार होने पर आपको पहुंचा दी जाएगी।’

‘फोटोग्राफी क्या आपकी हॉबी है अथवा पेशा है?’ पारस के कैमरा बंद करने पर नीरा ने पूछा।

‘इस समय तो शौक ही समझिए…।’

‘आप करते क्या हैं?’

‘नौकरी की खोज…सोचता हूं यदि काम न बना तो किसी फिल्म-कम्पनी में स्टिल फोटोग्राफर हो जाऊंगा।’

‘तब तो आप इसमें निपुण होंगे…।’

‘जो भी काम चाह और साधना से किया जाए उसमें निपुणता आ ही जाती है।’

‘और सफलता भी प्राप्त होती है…।’ नीरा ने बात पूरी कर दी और चलने लगी।

‘यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।’

‘क्यों?’ नीरा ने उसकी आंखों में झांकते हुए पूछा।

‘इसके लिए भाग्य का होना आवश्यक है।’

‘मैं इससे सहमत नहीं…मानव अपना भाग्य स्वयं बनाता है।’

‘हो सकता है आप ठीक कहती हों, किन्तु मेरा अनुभव इसके विपरीत है, अच्छा आज्ञा दीजिए…।’ यह कहते हुए बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए पारस आगे बढ़ गया। नीरा वहीं खड़ी उसे देखती रही…वह मन-ही-मन अपने और उसके भाग्य की तुलना करने लगी…एक वह है कि साधारण आवश्यकताओं के लिए भी तरस रहा है और एक वह जिसके तनिक से संकेत पर संसार भर का ऐश्वर्य उसके चरणों में लाया जा सकता है…किन्तु सफलता? सफलता क्या है? क्या उसका जीवन सफल है? वह और कुछ सोच न सकी।

उसने दृष्टि उठाकर सागर की लहरों को देखा…सूर्य डूब चुका था और लालिमा का स्थान हल्के काजल ने ले लिया था। आकाश पर थोड़ी ही देर में न जाने कहां से उमड़ती हुई बादलों की बारात घिर आई। घर पहुंचने से पहले वर्षा ने नीरा को मार्ग में ही घेर लिया। वह सिर से पांव तक भीग गई किन्तु वह प्रसन्न थी—यह शाम असफल न थी—इस शाम की छाया में उसका बोझिल मन फूल के समान हल्का हो गया—वह युवक उस दिन अचानक उसे मिला गाड़ी में…आज फिर उससे भेंट हुई अचानक ही…अब वह उसे तस्वीर देने आएगा…क्या यह परिचय बढ़ते जाना चाहिये…क्या यह भाग्य की स्वीकृति है?

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