ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
उसकी ब्याह की कल्पना की समस्त आकृतियां भण-भर में चूर-चूर हो गयीं—ये सुहावने स्वप्न स्वयं ही भंग हो गए और उनके स्थान पर सोने चांदी की झंकार उसके कानों में गूंजने लगी…ऐश्वर्य, आराम, सुख के साधन, झिलमिलाते नित्य नये वस्त्र, गहने, बंगले, मोटरें…उसके मस्तिष्क पर इस मदिरा का गहन नशा छा गया…वह सोचने लगी द्वारकादास कितने धन का मालिक है…और यह सब वह उसके संकेत पर न्यौछावर कर सकता है…उसे और चाहिये ही क्या? इस लक्ष्मी की झलक ने उसके मन में उठी एक स्वच्छ किरण को फिर अंधकार में छिपा लिया…नन्हें दूज के चन्द्रमा को ग्रहण खा गया। उसने झट लॉकर बंद किया और चाभी अपने पर्स में रख ली।
दिन के खाने के बाद उसने चाहा कुछ विश्राम कर ले किन्तु लेटने को उसका मन न चाहा। एक विचित्र बेचैनी ने उस पर अपनी छाया डाल दी थी। उसने गैरेज से गाड़ी निकाली और घर से बाहर निकल आई। बिना उद्देश्य के इस सड़क से उस सड़क, इस पार्क से उस पार्क उसने पूरी बम्बई घूम डाली किन्तु उसकी अनजानी व्याकुलता दूर न हुई। किसी सैर-तमाशे में उसका मन न रमा और वह वापस लौट आई। अभी अंकल के आने में बहुत समय था। उन्होंने उसकी अनुपस्थिति में फोन द्वारा अपने लेट जाने की सूचना दे दी थी।
शाम को चाय पीकर वह पैदल घूमती हुई समुद्र के किनारे तक चली आई।
पाली हिल्ज के पीछे का क्षेत्र काफी सुनसान था। समुद्र तट पर कहीं कोई जोड़ी जल-क्रीड़ा को देखती दृष्टिगोचर हो रही थी। नीरा धीरे-धीरे टहलते हुए वहां पहुंच गई जहां बिल्कुल सन्नाटा था, आसपास कोई व्यक्ति न था। वह धरती पर डूबती हुई किरणों का नृत्य देखने लगी। दूर सागर में सूर्य एक बड़े अग्नि गोले के समान धीरे-धीरे डूब रहा था। सागर तल पर लाल और सुनहरा रंग बिखर गया था। वर्षा के दिनों में यह दृश्य कम ही देखने को मिलता है। नीरा प्रायः इसी दृश्य की चाह में सांझ को इस ओर घूमने आ निकलती थी।
बड़ी देर तक वह सोचों में खोई वहीं बैठी सागर तल को निहारती रही। एकाएक उसकी दृष्टि कुछ दूर खड़े व्यक्ति पर पड़ी जो हाथ में कैमरा लिए सूर्यास्त का चित्र ले रहा था। उसने ध्यानपूर्वक देखा और कल वाले सहयात्री युवक को देखकर मुस्करा पड़ी। उसके मन में अनायास उसे देखकर एक गुदगुदी-सी हुई।
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