ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
अभी वह वाक्य पूरा भी न कर पाया था कि कोई आहट सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा। यह उसका वकील श्यामबिहारी लाल था जिसने प्रवेश करते ही पूछा—
‘किसके जीवन को सुन्दर बनाया जा रहा है दीवानजी?’
‘यूं ही नीरू को समझा रहा था, बड़ी मौन रहने लगी है।’
‘और बेचारी करे भी क्या?’ वकील साहब कुर्सी खींचकर उनके समीप बैठते हुए बोले—‘इतना बड़ा घर, न कोई बातचीत करने वाला, न जी बहलाने वाला, और फिर आयु भी तो टेढ़ी है उदास क्यों न हो।’
नीरू ने वकील साहब की बात को ध्यान से नहीं सुना और चाय का प्याला उनकी ओर सरका दिया। वकील साहब ने ‘धन्यवाद’ कहते हुए प्याला उठाया और मुस्कराते हुए द्वारकादास की ओर देखने लगे।
‘बिहारी! सोचता हूं कुछ दिन के लिए नीरू को किसी पहाड़ पर भिजवा दूं, जी बहल जाएगा और इधर-उधर की व्यर्थ सोचें भी मन में न आएंगी।’ यह कहते हुए द्वारकादास ने कनखियों से नीरा की ओर देखा।
नीरा चुपचाप दोनों की बातें सुने जा रही थी। वह मन-ही-मन सोचने लगी—नीरू के मन की बात भला यह क्या समझेंगे…पुरुष सभी एक समान हैं।
‘मेरी बात मानिए।’ कुछ क्षण रुककर वकील साहब बोले—‘नीरू का ब्याह कर दीजिए अब।’
नीरा ने देखा, वकील की बात सुनकर द्वारकादास के हाथ में चाय का प्याला कंपकंपा-सा गया। उसके चेहरे का रंग एकाएक फीका पड़ गया। नीरा कुछ सोचकर वहां से उठी और दूसरे कमरे में चली गई। अभी वह दूसरे कमरे में पर्दे के पीछे ही पहुंची थी कि वकील साहब की बात सुनकर वहीं रुक गई। वह कह रहे थे—
‘अब वह जवान हो चुकी है…सयानी भी है…यह घर का एकाकीपन कब तक उसे प्रसन्न रखेगा…मेरी मानिए, कोई अच्छा-सा घराना देखकर उसके हाथ पीले कर दीजिए।’
‘बिहारी! तुम्हारा परामर्श बुरा तो नहीं…किन्तु अच्छे लड़के की खोज के लिए समय चाहिये…बहुत सोच-समझकर बेटी को देना होगा…कैसा घराना चाहिये, इस बहारों में पली कली को…इस पर गंभीर विचार करना होगा…।’ द्वारकादास ने चाय का प्याला मेज पर रखते हुए उत्तर दिया।
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