ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
कई रातें गुजर गईं, हवाएं चलती रहीं—तूफान उमड़ते रहे और नन्हीं-सी कली नीरू पूरा खिला फूल बन गई…हल्की उभरी हुई रेखाओं के गोल और गहरे चित्र बन गए…उन चित्रों के रंग गहरे हो गए, वह अपूर्ण चित्र पूर्ण कलाकृति बन गया। द्वारकादास और उसकी रंगीनियों में कोई भी परिवर्तन न आया। नीरा के यौवन की अमूल्य बहारें निरन्तर चार वर्षों से वह लूटता चला आ रहा था।
यह भीगी रात भी उसके जीवन पर कालिख की एक और तह बढ़ा गई थी। इस छेड़-छाड़ में अब उसके लिए तनिक भी आनन्द न था…वह क्षुब्ध हो गई थी। वह शरीर जिसमें स्पर्श से गुदगुदी सी होने लगती थी अब दुखता था।
‘कुछ सोचते हुए वह शरीर को समेटकर पलंग पर बैठ गई और आपस में टकराते हुए खिड़की के खुले पर्दों को देखने लगी। फिर कपड़ों को ठीक करके उठी और खिड़की के पास जाकर बाहर हवा और बादल का भयंकर खेल देखने लगी। उसका अपना जीवन भी खिड़की के किवाड़ों के समान था जो वातावरण के थपेड़ों का सामना कर रहा था।
किन्तु ये किवाड़ निर्जीव थे। उसे उन पर तरस आ गया और उसने उन्हें बंद करके दोनों चटखनियां चढ़ा दीं। खिड़की बंद हो जाने से बाहर का शोर घट गया और उसे स्वयं अपने दिल की धड़कन सुनाई देने लगी। इस धड़कन में आज एक विशेष थरथराहट थी, एक विद्रोह का भास था। यह ऐश और विलास का जीवन उसे खलने लगा था…उससे उसकी आत्मा में एक अभाव उत्पन्न हो गया था…उसे इस अभाव की एक धुंधली-सी परछाई उभरती दिखाई दी जो धीरे-धीरे उसके मनोमस्तिष्क पर छा गई। उसकी चिन्तन शक्ति घटती जाती थी…वह तड़पती, फड़फड़ाई और फिर निढाल होकर बिस्तर पर जा लेटी। वर्षा निरन्तर किवाड़ों और छतों पर आक्रमण किए जा रही थी।
दूसरे दिन सवेरे नाश्ते की मेज पर उसे अति गंभीर बैठे देखकर द्वारकादास ने नीरू से पूछा, ‘क्यों नीरू! क्या बात है?’
‘कुछ नहीं अंकल।’
‘जो चिड़िया सदा चहकती रहे वह अचानक चहकना बंद कर दे तो अवश्य कोई बात है।’
‘यों ही कुछ सोच रही थी।’ होंठों पर कृत्रिम-सी मुस्कान उत्पन्न करते हुए उसने द्वारकादास की ओर देखा।
‘क्या?’
‘अपने जीवन के सम्बन्ध में…।’
‘वह सदा सुन्दर रहेगा और…।’
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