ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘अंकल, आप भी शरारत पर उतर आये हैं?’
‘कैसी शरारत?’
‘बदन की चुटकी लेकर…।’
‘इससे क्या होता है?’
‘नीचे काले निशान पड़ जाते हैं और कभी बुखार भी होता है।’
‘यह तुमसे किसने कहा?’
‘सोनिया ने…वह कुन्दन है ना अंकल…कुन्दन…सोनिया की भाभी का भैया…उसने सोनिया के शरीर पर काले नीले निशान डाल दिए हैं।’
‘तब।’ अंकल ने इस बात में आनन्द लेते हुए पूछा था।
‘उसे हल्का-हल्का बुखार भी आने लगा था।’
‘ओह! कुन्दन अनजान था, उसे चुटकी लेने का ढंग न आता होगा।’ यह कहते हुए हांफते स्वर में द्वारकादास धीरे-धीरे नीरा के कोमल शरीर की चुटकियां लेने लगा…भोली-भाली नीरा…अनजान नीरा इस बहाव में बह गई। अंकल के हाथों के स्पर्श से उसे गुदगुदाहट होने लगी थी…एक विचित्र-सा उन्माद उसके मिस्तिष्क पर छाने लगा था। इस प्रथम छेड़-छाड़ में द्वारकादास ने नीति से काम लिया और धीरे-धीरे बढ़े…विश्वास जमाते हुए।
फिर यह भय एक बहाना बन गया और वह मासूम छेड़छाड़ का आनन्द का स्रोत। नीरा द्वारकादास के तनिक से संकेत पर ही आधी रात को अपना बिस्तर छोड़कर उसके शयनकक्ष में आने लगी। वह एक स्प्रिंग वाली गुड़िया के समान बन गई जिसकी चाभी द्वारकादास के हाथ में थी।
और फिर वह रात आई जब छेड़छाड़ की सीमा पार करके द्वारकादास ने प्रथम बार उसके फूल के समान खिले शरीर को पूरी तरह अपने शरीर में समेट लिया था और यों उसके जीवन की सबसे पवित्र, सबसे बहुमूल्य वस्तु लुट गई…उसका सतीत्व अंधेरे ने छीन लिया…वह सतीत्व जिसकी रक्षा करना स्त्री का प्रथम और परम कर्तव्य है…वह पवित्र भावना जिसके कारण वह गर्व से अपना सिर उन्नत रख सकती है।
किन्तु तब वह कितनी नासमझ थी…उसके मन ने तनिक-सा उसे धिक्कारा और वह फिर भूल गई, इस मानसिक ग्लानि को। वह द्वारकादास के हाथों में एक खिलौना बनकर रह गई जिससे वह जब चाहता मन बहला लेता। उस पर उसकी कृपाएं भी बढ़ती गयीं और उपकार के पर्दे में कई गुल खिलते रहे। अंकल के उपकारों के बोझ-तले वह दबती गई…इतनी दबी कि स्वयं को पहचान न पाई…उनके मन ने कोई भयंकर विद्रोह नहीं किया।
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