ई-पुस्तकें >> कलंकिनी कलंकिनीगुलशन नन्दा
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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।
‘माई लर्ड! यदि ऐसी पापिन स्त्री पर दया की दृष्टि की गई तो स्वयं न्याय की देवी लहू के आंसू रोएगी, इसे मौत का दंड मिलना चाहिये, मौत—इससे कम नहीं।’
‘ऐसी औरत के लिए मौत की सजा भी रहमदिली है। इसे तो जिन्दा ही ऐसी खाई में डाल देना चाहिये जहां गिद्ध और कौए इसके बदन को नोच-नोचकर खाएं।
‘अरी! तुम इसे स्त्री कहती हो—यह तो स्त्री के रूप में नागिन है, डायन है, यह कलंकिनी।’
और इन सब आवाजों में एक आवाज सबसे भिन्न थी, सबसे अलग, यह आवाज थी पारस की, नीरा के पारस की जो चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, ‘यह झूठ है बिल्कुल झूठ है मेरी नीरू ने हत्या नहीं की, वह निर्दोष है, वह देवी है उसने अपराध नहीं किया।’
नीरा इन चीखती हुई आवाजों को सहन न कर सकी और उसने दोनों हाथों से अपने कान बंद कर लिए, फिर भी उसकी हथेली को छेदकर कुछ आवाजें समाप्त हो गईं मानो उसे फटकार कर लौट आई हों, कोठरी में सन्नाटा छा गया, नीरा ने हाथ कानों से अलग कर लिए, उसे अब केवल एक गूंज सुनाई दे रही थी, एक मधुर गूंज, यह भी पारस की आवाज की प्रतिध्वनि जो कि दिल के किसी कोने से उठकर उसके मस्तिष्क को शांत किए जा रही थी…वह वास्तविकता को न समझते हुए भी उसे निर्दोष कहे जा रहा था…उसी का पक्ष लिए जा रहा था…परन्तु इतने विरोधी समाज में वह अकेला था…धीरे-धीरे यह आवाज भी समाप्त हो गई। काल-कोठरी में मृत्यु का सन्नाटा छा गया।
अचानक किसी आहट ने नीरा को गहरी सोच से जगा दिया। उसने गर्दन उठाकर देखा पारस दो सिपाहियों के मध्य कोठरी के सलाखों वाले द्वार के पास खड़ा था। उसकी आंखों में थमे हुए आंसू जेल के धुंधले प्रकाश में झलक रहे थे। नीरा की आंखों में कोई आंसू न था। शायद इन क्षणों में उसके सब आंसू सूख गये थे…अब केवल निर्जीव सी पुतलियां थीं इन पलकों के पीछे जो कल के समान ऊपर-नीचे होतीं। उसने अपने आपको हत्यारिन स्वीकार कर लिया था और इस दंड को भोगने के लिए तैयार थी। पारस को उसकी पथराई आंखें अच्छी न लग रही थीं—वह उन आंखों में उन स्वच्छ मोतियों की लड़ी देखना चाहता था जिनके सहारे वह मन की गहराई का स्पर्श अनुभव कर सके।
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