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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

सिपाही दूर हटकर ओट में हो गए। उसे अकेले देखकर नीरा धीरे से अपने स्थान से उठी और बोझिल पांव उठाती हुई लोहे की सलाखों के पास आकर खड़ी हो गई। पारस के होंठ कुछ कहने को फड़फड़ाए किन्तु आवाज ने उसका साथ न दिया और वह केवल, ‘नीरू’ कहकर रह गया। उसकी आंखों से छमछम बहते हुए आंसू नीरा से न देखे गए और वह मुख पलटकर लौटने लगी। पारस ने झट सलाखों के बीच हाथ बढ़ाकर उसे कंधे से थाम लिया। नीरा वहीं रुक गई।

‘पारस…।’ नीरा ने बड़ी धीमी आवाज में पुकारा।

‘नीरू।’

‘आप चाहते हैं न…मृत्यु के बाद मेरी आत्मा को शांति मिले।’

‘किन्तु।’

‘पहले मेरी बात का उत्तर दें।’

‘पगली। यह कौन दिल वाला व्यक्ति न चाहेगा।’

‘तो वचन दो।’

‘क्या?’

‘मेरे मर जाने के बाद अपना घर बसा लोगे।’

‘नीरू।’

‘वचन दो पारस…मेरी आत्मा को सुख देने के लिए एक शरीफ, गरीब लड़की को दुल्हन बनाकर ले आओगे।’

‘नहीं, नहीं, यह संभव नहीं।’

‘तो मैं समझूं दुनिया में दुःख, तड़प और जलन के अतिरिक्त…।’

‘ऐसा न कहो नीरू…।’

‘तो…।’

‘यदि तुम्हें इस बात से तनिक भी शांति मिलती हो तो मैं यह वचन पूरा करूंगा।’

‘बस…अब चैन से मर सकूंगी।’ यह कहते हुए न जाने कहां से नीरा की शुष्क आंखों में दो बूंद आंसू झलक आए किन्तु शीघ्र उसने अत्यन्त मानसिक शक्ति से उन आंसुओं को पलकों में ढुलकने से पहले ही सोख लिया।

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