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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584
आईएसबीएन :9781613010815

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

१५

 

नीरा अकेली कैद घर की अंधेरी कोठरी में बैठी थी। रात के लगभग दो पहर बीत चुके थे। समाज और न्याय ने उसके जीवन का निर्णय कर दिया था। अपने ही हितकर सेठ द्वारकादास, जिन्होंने उसे पाला-पोसा बेटियों से बढ़कर प्यार से रखा, की हत्या के अपराध में उसे फांसी का दण्य मिला—कुछ ही देर बात उसे मौत के फंदे की ओर ले जाया जाना था, ये उसके अन्तिम क्षण थे, जीवन के अन्तिम क्षण।

नीरा को अपनी मृत्यु का तनिक भी डर न था, उसे इस कठोर दण्ड से भी कोई गिरा न था, न्याय ने अपना निश्चित काम किया था किन्तु, उसे रह-रहकर पारस का ध्यान आता जो पागलों के समान दिन-रात लगा उसे फांसी की डोरी से बचाने के लिए प्रयत्न कर रहा था, और जब उसके सब यत्न विफल हो गये थे, क्षमा की अन्तिम आस भी टूट चुकी थी। उसने द्वारकादास को क्यों मारा, यह रहस्य ही रहा। अदालत ने, वकीलों ने और समाज के अन्य ठेकेदारों ने इसे जानने के लिए चोटी का बल लगाया किन्तु वास्तविकता कोई न जान पाया। नीरा इस रहस्य को अपने साथ लिये जा रही थी। सारी दुनिया ने उसे कलंकिनी और हत्यारिन कहा था किन्तु पारस को विश्वास था कि उसने अंकल का खून नहीं किया—नहीं किया।

रात के सन्नाटे में उसके मस्तिष्क पट पर कुछ आवाजें चोटें लग रही थीं, नाना प्रकार की आवाजें, ये आवाजें बढ़ती हुई एक शोर में परिवर्तित होती जा रही थीं, नीरा काल कोठरी में बैठी इन आवाजों को छांट रही थी, ये आवाजें अनजान अनेकों व्यक्तियों की थीं। उसने मौन खड़े होकर अदालत के कटहरे में इन आवाजों को सुना था।

‘यह नारी नहीं, नारी के रूप में चुड़ैल है।’

‘कोई स्त्री जायदाद के लालच में उस देवता की भी हत्या कर सकती है, जिसने पिता के समान उसका पालन-पोषण किया, धिक्कार है उस पर।’

‘उस बे औलाद सेठ का दुर्भाग्य था यह, बेचारे ने इसी दिन के लिए इस संपोलन को पाला था शायद।’

‘हे भगवान! संसार में ऐसी भी कलंकिनी पैदा करके तूने नारी जाति के नाम पर एक कलंक लगा दिया।’

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